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________________ ३२८ ] नियममार हारात्मकपरमतपश्चरणात्मक परमजिनयोगिनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरक शेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमिति हे शिष्य त्वं जानीहि । (दुतविलम्बित) अनशनादितपश्चरणात्मकं सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम । सहजबोधकलापरिगोचरं सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ।।१४।। ( शालिनी ) प्रायश्चित्तं ह्य त्तमानामिदं स्यात् स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं घHशुक्लम् । कर्मवातध्वान्तसबोधतेजो लीनं स्वस्मिन्निविकारे महिम्नि ॥१५॥ - - - -.. - - - निश्चय और व्यवहार लक्षण बाला परमतपश्चरण स्वरूप शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त होती है ऐसा है शिग्य ! तुम समझो । [अब टीकाकार मुनिराज प्रायश्चित्त की महिमा को कहते हा पांच लो कहते हैं-] (१८४) श्लोकार्थ---जो अनशन आदि बारह प्रकार के तपश्चरणरूप सहज शुद्धचंतन्य स्वरूप को जानने वालों के लिये यह सहजज्ञान कला का विषय ऐसा यह सहज तन्य पापों के क्षय करने में कारण है। (१८५) श्लोकार्थ-यह प्रायश्चित्त निश्चितरूप से उत्तम जीवों को हो है जो कि इस स्वद्रव्य में धर्म ध्यान और शुक्लध्यान के चिंतनरूप है, कर्म समह अंधकार को नष्ट करने के लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा अपनी निर्विकार मात्र में लीन है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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