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________________ मागदशक- 4 [२६९ परम-आलोचना अधिकार (पृथ्वी ) जयस्यनचिन्मयं सहजतत्वमुच्चरिदं विमुक्तसकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम् । नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम् ।।१५६॥ ( मंदाक्रांता) शुद्धात्मानं निजसुखसुधावाधिमज्जन्समेनं बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शं प्रयाति । तस्मादुच्चेरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्व भेदाभावे किमपि सहज सिद्धि भूसौख्यशुद्धम् ।।१५७।। ( बसननिलका) निर्मुक्तसंगनिकरं परमात्मतत्त्वं निर्माहरूपमनघं परभावमुक्तम् । संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं निर्वाणयोषिवतनूद्भवसंमदाय ॥१५८।। (१५६) श्लोकार्थ-निर्दोष चैतन्यमय यह सहजतत्त्व अतिशयरूप से जयशील हो रहा है जो कि सकल इन्द्रियसमूह से उत्पन्न हुए कोलाहल से रहित है। नय और कुनय के समूहों से दूर होते हुए भी योगियों के गोचर है। सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों के लिये बहुत ही दूर है। (१५७) श्लोकार्थ-जो शुद्धात्मा अपने मुखरूपी अमृत के समुद्र में डुबकी लगा रही हैं ऐसी इस आत्मा को भव्यजीव परमगुरु के प्रसाद से जानकर शाश्वत सुग्व को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये मैं भी अतिअपूर्व उम आत्मा की अतिशयरूप से सदा भावना करता हूं जो कि सिद्धि से उत्पन्न हुए मुग्वरूप शुद्ध है, भेद के अभाव में कोई एक अद्भुत है सहज-स्वभावरूप है । . (१५८) श्लोकार्थ-संपूर्ण परिग्रह से रहित, निर्मोहरूप, निर्दोष, परभावों श्री मुक्त ऐसे इस परमात्मतत्त्व को मैं निर्वाणमुन्दरी से उत्पन्न होने वाले अनंगसुख के अवये नित्य ही सम्यक्प्रकार से अनुभव करता हूं और नमस्कार करता हूं। * -
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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