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________________ : ; २६८ ] स्पष्टः नियमसार ( मंदाक्रांता ) परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये आत्मा ज्ञानज्योतिः प्रहतदुरितध्वान्तपुजः पुराणः । सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ मनोमार्गमस्मि - भारातीये परमपुरुषे को विधि को निषेधः ।। १५५ ।। एवमनेन पचन व्यवहारालोचनाप्रपंचमुपहसति किल परमजिनयोगीश्वरः । तथा मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेता है। इसलिये श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने यहां पर उन निश्चयरत्नत्रय से परिणत आत्मा को नमस्कार किया है । ( १५५ ) श्लोकार्थ - परमसंयमियों के हृदय सरोज के मध्य में यह आत्मा स्पष्ट है जो कि ज्ञानज्योति से पापरूपी अंधकार के पुंज को नष्ट कर चुका है तथा पुराण - प्राचीन है । वह आत्मा मंसारी जीवों के वचन और मन के अगोचर है एसे इस आरातीय - प्राचीन परमपुरुष में क्या तो विधि है और क्या निषेध हैं ? भावार्थ- परमोपेक्षासंयमी योगी वीतराग निर्विकल्प ध्यान में जिस आत्मा का ध्यान करते हैं वह संसारी जीवों द्वारा न तो वचन से कही जा सकती है और न वे उसका अनुभव ही कर सकते हैं । वास्तव में ऐसी महान अवस्था को प्राप्त करते हुए महापुरुषों के लिये क्या ग्रहण करना शेष हैं और क्या छोड़ना शेष रहा है ? अर्थात् ग्रहण करने और छोड़ने के विकल्पों से दूर वे विकरुपातीत अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। हां, इतना अवश्य है कि प्रारम्भिक अवस्था में उन्होंने परिग्रहादि को विभाव भावों को भी छोड़ा है और महाव्रतादिरूप व्यवहार चारित्र को ग्रहण किया है अन्यथा यह अवस्था प्राप्त होना असंभव थी । इस प्रकार से परम जिनयोगीश्वर इस पद्य के द्वारा व्यवहार आलोचना के विस्तार का उपहास कर रहे हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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