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________________ ३०० ] नियमसार (बसंततिलका) त्यक्त्या विभावमखिलं निजभावभिन्न चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि । संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं निर्मुक्तिमार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम् ।।१५६।। कम्ममहीरुहमलच्छेदसमत्यो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो, प्रालुछणमिदि समुद्दिट्ट ।।११०॥ कर्ममहीरहमूलच्छेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः । स्वाधीनः समभावः आलुञ्छनमिति समुद्दिष्टम् ।।११०।। कामं मूल को छेदने में यह।। शुद्ध निज का जो परिणाम सगरथ वही ।। यो है परिणाम ग्वाधीन मम भाव मात्र 1 उसको कहते हैं ग्रालुछना जिन अभय ।। ? १०।। परमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभा। औयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावानामगोचरः स पंचमभावः । प्रत एवोदयोदोरणक्षद -.-.--. (१५६) श्लोकार्थ-अपने भाव से भिन्न ऐस सकल विभाव को छोड़करः | निर्दोष एक चिन्मात्र की भावना करता हूं । संसार सागर से पार होने के लिये अभी। रूप में कथित ऐसे मोक्ष मार्ग को भी मैं नित्य ही नमस्कार करता हूं। गाथा ११० ___ अन्वयार्थ—[कर्ममहोरहमूलच्छेदसमर्थः] जो कमपी वृक्ष की जड़ को छ । में समर्थ है [स्वाधीनः] अपने आधीन है और [ समभावः ] ममभावरूप है ऐसा [ स्वकीय परिणामः ] अपनी आत्मा का परिणाम है वह [ आलु छनं ] आलु छन [इति निर्दिष्टं] ऐसा कहा है। टोका-परमभाव के स्वरूप का यह कथन है । भव्य जीव का पारिणामिक भावस्वभाव से जो परमस्वभाव है वह पंचम औदयिक, क्षायोपशमिक, क्षायिका और औपशमिक इन चार विभावस्वभावों के अगो.
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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