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________________ 1-1-1- 4. -. नियममार ( मंदाक्रांता) "आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन प्राप्य शुद्धोपयोग नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चरविचलतया निःप्रकम्पप्रकाशा स्फूर्जज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।" तथा हि ( मंदाकांता ) आत्मन्युच्चर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूत धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम् । सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निव तेरेकमार्ग: तेनवाहं किमपि लगा पनि शिबिशपम् ।।२३८।। श्लोकार्थ--'आत्मा शुद्धोपयोग को प्रान करके स्वयं धर्मम्प होता हुआ नित्य आनन्द के विस्तार से सरस रोमे ज्ञाननन्ध में लीन होकर अतिशयरूप अविचलपने से स्फुरायमान ज्योति से महज गोभायमान ऐसे स्नदीपक की निष्प्रकंप प्रकाशरूप गोभा को प्राप्त कर लेगा। उमीप्रकार से [ श्री पद्मप्रभमलधारी देव निश्चय आवश्यक क्रिया में अपने आपको प्रेरित करते हुए कहते हैं--- ] (२३८) श्लोकार्थ-स्ववश में होने से उत्पन्न हुआ आवश्यक क्रिया स्वरूप यह धर्म साक्षात नियम से सच्चिदानंद मूर्तिस्वरूप आत्मा में अतिशयरूप से होता है । सो यह धर्म कमां का क्षय करने में कुशल है. और निर्वाण का एक मार्ग है। इस मार्ग से ही मैं शीघ्र ही कोई एक अद्भुत ऐसे निर्विकल्प सुख को प्राप्त होता है। भावार्थ-अन्य पदार्थ के अवलम्बन से रहित होकर अपने आप जो अपनी आत्मा का अवलम्बन ले लेते हैं वास्तव में वे शीन ही आत्मा से उत्पन्न हुए सांसारिक सुख की तुलना से रहित ऐसा कोई एक विलक्षण सुख प्राप्त कर लेते हैं । १. प्रवचनसार की तत्त्व दीपिका टीका में श्लो. ५ वां पृ. २१८ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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