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निश्चय-परमावश्यक अधिकार,
[६८७ रण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधवा। जत्ति त्ति उवाग्रं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ॥१४२॥
न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम् । युक्तिरिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्तिः ।।१४२।।
या जो न वश वह वश वह स्वाम्म आ थिन । उमकी क्रिया ही बग़ ब्रायश्यक समझ लो ।। यो हो है युक्ति वह मान उपाप भी है।
उसने विदेह मुनि हो यह है निरुती ।। १४२।। अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्तम् । यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवश इत्युक्तः, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम् । निरवयवस्योपायो युक्तिः । अवयवः काय:, अस्याभावात् अवयवाभावः । अवशः
गाथा १४२
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अन्वयार्थ-[नवश : अवशः] जो (अन्य ) के वश में नहीं है बह 'अवश' है [ अवशस्य कर्म वा आवश्यक ] और जो अबश का कर्भ है वह आवश्यक है [ इति बोद्धव्यं ] ऐसा जानना चाहिए [ युक्तिः इति उपायः इति च ] वही (शरीर रहिन होने की) युक्ति है और वही उपाय है [ निरवयवः भवति ] उसमे जीव निरवयबशरीर से रहित हो जाता है [निरुक्तिः] सी निक्ति है ।
दीका-अवश हुए परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक क्रिया अवश्य होती है ऐसा यहां पर कहा है ।
जो योगी हैं वे स्वात्मा के परिग्रह से अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश में नहीं होते हैं इसीलिये वे 'अवश' इसप्रकार कहे जाते हैं, उन अबश हुये परम जिनयोगीश्वर के निश्चय धर्मध्यानरूप परम आवश्यक क्रिया अवश्य होती है ऐसा जानना चाहिये । अवयव रहित होने का उपाय युक्ति है, यहाँ अवयव का अर्थ काय है उस काय के
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