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________________ नियममार ( मालिनी) अभिनवमिदमुच्चर्मोहनीयं मुनीनां त्रिभुवनभुवनान्ततिपुंजायमानम् । तृणगृहमपि मुक्त्वा तीववैराग्यभावाद् वसतिमनुपमा तामस्मदीयां स्मरन्ति ॥२४०।। ( शार्दूलविक्रीडित ) कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावष्यलं मिथ्यात्वादिकलंककरहितः सद्धर्मरक्षामणिः । सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।।२४।। आवश्यक क्रियायें तो उनसे बहुत ही दूर हैं । तथा ये निश्चय आवश्यक क्रियायें भी व्यवहार रत्नत्रय मे सहित मुनि के ही होती है न कि ब्यवहार रत्नत्रय के बिना भो। ऐसा समझकर व्यवहार रत्नत्रयरूप साधन से निश्चय को साध्य करना चाहिए। अब टीकाकार मुनिराज इस काल के मुनियों की प्रशंसा करते द्वाप नथा व्यवहार निश्चयरूप उभय धर्म में प्रेरित करते हुए पांच श्लोक कहते हैं--] (२४०) श्लोकार्थ-त्रिभुवनरूपी भवन के अन्तर्गत हुए तिमिरपुज के समान मुनियों का यह (कोई एक) नवीन तीब्रमोह कर्म है कि जिससे (पूर्व में) वे तीन वैराग्यभाव से तृण के घर को भी छोड़कर पुनः 'हमारी यह अनुपम वसति है। ऐसा स्मरण करते हैं। भावार्थ-जिन्होंने वैराग्य की उज्ज्वलता से पहले फूस की झोंपड़ी तक को छोड़ दिया पुनः यदि वे अपने या अन्य किसी वसतिका आदि में ममत्व रखते हैं तो आचार्य कहते हैं कि यह कोई अद्भुत ही उनका मोहनीय कर्म का विपाक दिख रहा है । (२४१) लोकार्थ-कलिकाल में भी कहीं कोई पुण्यशाली जीव मिथ्यात्व आदि कलंकपंक से रहित तथा सच्चे धर्म की रक्षा के लिये मणिस्वरूप ऐसे मुनि होते
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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