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जीव अधिकार
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नारका
सागरोपमायुषः । द्वितीयनरकस्य नारकाः त्रिसागरोपमायुषः । तृतीयस्य सप्त । चतुर्थस्य दश । पश्चमस्य सप्तदश । षष्ठस्य द्वाविंशतिः । सप्तमस्य श्रर्याशत् । अथ विस्तारभयात् संक्षेपेणोच्यते, तियंश्चः सूक्ष्मकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकवादरं केन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तद्वद्रियपर्याप्तकापर्याप्त कीन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्त चतुरिन्द्रियपर्याप्तका
भेद वाले देवों में भी अनेकों प्रभेद होते हैं, यह निकाय शब्द समूह अर्थ का वाचक है ।
और भी भेद "लोकविभाग' नामक इन चार गति वाले जीवों के भेदों परमागम में देखना चाहिये | यहां पर प्रात्मस्वरूप के प्ररूपण में अंतराय का हेतु है इसलिये पूर्वाचार्य सूत्रकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने नहीं कहा है ।
विशेष - जो जिस विषय के प्रतिपादक ग्रन्थ होते हैं उनमें उसी विषय की प्रधानता रहती है अतः उनमें अन्य अनुयोग के विषय गौण हो जाते हैं । इसका अभिप्राय यह नहीं है दि सन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों का पठन-पाठन, मनन-चिंतन ही नहीं करना चाहिये । स्वयं भगवान् कुन्दकुन्ददेव ने ही जब यह स्पष्ट कहा है कि इनके विषय प्रभेदों को 'लोक विभाग' ग्रन्थों से जानना चाहिये। यहां यह नहीं कहा कि इनके विशेष भेद-प्रभेदों को जानने की आवश्यकता ही नहीं है अथवा ये प्रयोजनीभूत विषय हैं, किन्तु अन्य ग्रन्थों से जान लेने को ही कहा है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि द्वादशांग वारणी रूप अथवा चतुरनुयोग रूप सभी ग्रन्थ पढ़ने चाहिये किसी अनुयोग को भी अप्रयोजनीभूत कहकर उपेक्षा नहीं करना चाहिये, अन्यथा श्रुत की आसादना का दोष लगता है । वास्तव में सभी भगवान् की वाणी रूप द्वादशांग के अंशरूप वर्तमान में सभी ग्रन्थ आत्म हित के लिये ही हैं न कि ति के लिये ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये ।
आत्मानुशामन में सम्यक्त्व के १० भेद कहे हैं- 'आज्ञा समुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेश समृद्भव, सूत्र समुद्भव, बोज समुद्भव, संक्षेप समुद्भव, विस्तार
१. 'लोकविभाग' नामक यह ग्रन्थ श्री सिंह सूरषि कृत जीवराज ग्रन्थमाला भोलापुर से मुद्रित हो चुका है । इसके पूर्व कोई प्राकृत भाषा में 'लोक विभाग' नामक ग्रंथ भगवान् कुन्दकुन्ददेव के समय में होगा ऐसा अनुमान है । २. आत्मानुशासन ग्लोक ११ से १४ ।