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________________ ५२ ] नियमसार पर्याप्तकासंजिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकापर्याप्तकसंजिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदाच्चतुर्दशमेदा भवन्ति । भावनव्यंत रज्योतिःकल्पवासिकभेदाई वाश्चतुणिकायाः । एतेषां चतुर्गतिजीवभेदानां भेदो लोकविभागाभिधानपरमागमे द्रष्टव्यः । इहात्मस्वरूपप्ररूपणान्तरायहेतुरिति पूर्वसूसिमिः सूत्रपुस्रिनुक्त शंत । समुद्भव, अर्थ समुद्भव अबगाढ़ और परमावगाह । दर्शनमोह की उपशांति से, ग्रन्थ श्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान् की प्राज्ञा से हो जो तत्त्व श्रद्धान होता है वह 'अाज्ञामम्यक्त्व' है । दर्शनमोह के उपशम से ग्रन्थ श्रवण के बिना ही कल्याणकारी मोक्ष मार्ग का श्रद्धान करना 'मार्ग सम्यक्त्व' है । वेसठ शलाका पुरुषों के पुराण के उपदेश से जो तत्त्वश्रद्धान होता है वह 'उपदेश' सम्यग्दर्शन है । मुनि के चारित्र के आचार सूचक सूत्रों को सुनकर जो तत्व श्रद्धान होता है वह 'सूत्र' सम्यग्दर्शन है । जिन जोवादि पदार्थों का या गणित प्रादि विषयों का पंचसंग्रह, तिलोयपणनि, धवलादि करणातुयोगी ग्रन्थों के किन्हीं बीज पदों में ज्ञान प्राप्त करके जो दर्शन मोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्वश्रद्धान होता है वह 'बीज' सम्यग्दर्शन है । जो भव्य जीव तत्त्वार्थ सिद्धान्त सूत्र लक्षण द्रव्यानुयोग के द्वारा जीवादि पदार्थों को संक्षेप से जानकर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है 'संक्षेप' सम्यग्दर्शन है। जो भव्य जीव बारह अंगों को सुनकर विशेष तत्त्व श्रद्धानी होता है उसके सम्यक्त्व को विस्तार' सम्यग्दर्शन कहते हैं । अंगबाह्य आगम के पढ़े बिना उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निगिन मे जो अर्थश्रद्धान होता है वह 'अर्थ' सम्यग्दर्शन है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो सम्यक्त्व होता है वह 'अवगाद' सम्यग्दर्शन कहलाता है। अर्थात यह सम्यक्त्व द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली के ही होता है । केवलज्ञान के द्वारा देख गये पदार्थों के विषय में जो रुचि होती है वह यहां 'परमावगाढ़' सम्यग्दर्शन कहलाता है । अर्थात् केबली भगवान का सम्यग्दर्शन परमावगाइ नाम से कहा जाता है । ____ इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये सभी ग्रन्थ सम्यक्त्व के लिये कारण बन सकते हैं । कहीं-- कहीं पर करणानुयोग के गणित सूत्रों के मनन से भी सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है अर्थात् इन बाह्य निमित्तों से दर्शनमोहनीय का उपशम-क्षयोपशमादि हो जाता है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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