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________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६१ गुणगुरिणनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत् । सकलपरद्रव्यपराङ मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य स्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि । तत्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र संदेहो नास्ति । ( अनुष्टुभ् ) आत्मानं ज्ञानदारूपं विद्धि दृग्ज्ञानमात्मकं । स्वं परं चेति यत्तत्वमात्मा द्योतयति स्फुटम ।। २८७॥ टीका-..सूण और गुणी में भेद के अभाव । स्वमा का यह कथन है । हे शिष्य ! ममस्त परद्रव्य में पराङ मुम्ब सी आम को स्वस्वरूप के जानने में ममर्थ सहजज्ञानस्वरूप तुम समझो, तथा विज्ञान को हो मातभा मा जानो, इसलिये नाविक बात यह है कि जान और दर्शन ये दोनों ही स्वपरप्रकाशी हैं। इसमें संदेह नहीं है। । अव टीकाकार मुनिराज नाव्य कलाणा द्वाग टर्म' बान को पुष्ट करते हैं. ] (२८७) श्लोकार्थ- आत्मा को ज्ञान दर्शनरूप और ज्ञान दर्शन को नम आत्माहप जानो। क्योंकि जो स्व और पर रूप तत्त्व हैं उन सबको यत्र आमा स्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है । विशेषार्थ-गाथा १५९ से लेकर १७१ तक ऐसे ५३ गाथाओं में आचार्य श्री कदद देव ने आत्मा के ज्ञान और दर्शन गण की विशेष विवेचना की है। जिसमें मात्र गाथाओं के अर्थ को क्रम से पढ़ लेने पर भाव स्पष्ट हो जाते हैं, यथाकेवली भगवान् व्यवहार से सर्व को जानते और देखते हैं, निश्चयनय से वे आत्मा को जानते और देखते हैं। केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन युगपत् रहते हैं जैसे कि सूर्य के प्रकाश और ताप साथ-साथ रहते हैं । "ज्ञान परप्रकाशी है, दर्शन आत्मप्रकाशी है, तथा आत्मा स्वपरप्रकाशी है, यदि तुम ऐसा मानो तो क्या दूषण आता है सो दिखाते हैं ?"
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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