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________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४८६ कथमिति चेत् । 'निर्वाणमेव सिद्धा' इति वचनात् । सिद्धाः सिद्धक्षेत्र तिष्ठंतीति व्यवहारः, निश्चयतो भगवंतः स्वस्वरूपे तिष्ठति । ततो हेतोनिर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणम् इत्यनेन क्रमेण निर्वाणशब्दसिद्धशब्दयोरेकत्वं सफलं जातम् । अपि च यः कश्चिदासनभव्यजीवः परमगुरुप्रसादासादितपरमभावभावनया सकलकर्मकलंकपकविमुक्तः स परमात्मा भूत्वा लोकाग्रपर्यतं गच्छतीति । ( मानिनी ) अथ जिनमतमुक्त मुक्तजीवस्य भेदं क्वचिदपि न च विद्मो युक्तितश्चागमाच्च । यदि पुनरिह भव्यः कर्म निर्मूल्य सर्व स भवति परमश्रीकामिनोकामरूपः ।।३०३।। प्रश्न-कैसे ? ___ उत्तर-'निर्वाणमंत्र सिद्धाः' निर्वाण ही सिद्ध हैं, ऐसा वचन पाया जाना है। सिक भगवान् सिद्ध क्षेत्र में रहते हैं, ऐसा व्यवहार है. निश्चय से भगवान् अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं और इस हेतु से "निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्माण हैं," इस प्रकार के क्रम से निर्वाण शब्द और सिद्ध शब्द इन दोनों में एकत्व सफल हो गया है । तथा, जो कोई आसन्नभव्य जीव परमगुरु के प्रगाद से प्राप्त हुए परमभाव की भावना से सकल कर्म कलंक रूपी कीचड़ मे विमुक्त हो जाते हैं, वे परमात्मा होकर लोक के अग्रभाग तक चले जाते हैं। [अब टीकाकार मुनिराज पुनरपि निर्वाण और निर्वाण प्राप्त जीवों में अभेद दिखलाते हुए कलश काव्य कहते हैं-] (३०३) श्लोकार्थ-जिनेंद्र देव के मत की मुक्ति में और मुक्त जीव में हम कहीं पर भी युक्ति से और आगम से भेद नहीं समझते हैं। यदि पुनः इस लोक में कोई भव्य जीव सम्पूर्ण कर्म को निर्मूल कर देता है, तो वह परमश्री-मुक्तिलक्ष्य रूपी कामिनी का प्रिय वल्लभ हो जाता है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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