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________________ शुद्धभाव अधिकार [ १४१ श्चितुभिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सः भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायः सदृशाः शुद्ध नयादेशादिति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( मालिनी) "ध्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदयामिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतो नैष किंचित् ।।" विपथ - यहां पर जिस अपेक्षा से ममासे गरीब के समान का है उमी अपेक्षा मे उन संसारी जीवों के गुणपर्याया को भी मिला है ममान श कहा है। यह बात नहीं है कि द्रव्य न। बैंकालिक गझ हो और पयावं मंगार अवस्था में अगल है आन सिक अवस्था में श-हो । प्रत्युत वाम्नान दान यही है कि जिरा नय ग गमारी नीव का द्रव्य गन्द्र है, उसी नय में मुगपयां भी और जिग व्यवहार. नग म ममागे जीवों की गुणपर्याय अशुद्ध हैं उगी नय में गृगाया के समहाप दब | भी अनद्ध ही है, ऐगा समझना । उसी प्रकार में श्रीअमृतचन्द्रमूरि ने भी कहा है - "श्लोकार्थ— 'यद्यपि व्यवहारनय, प्राथमिक अवग्या में जिन्होंने पैर खा है उनके लिये हरनावलंबन स्वरूप होता है, फिर भी अंतरंग में पर से विरहित चिच्चात्कार मात्र उत्कृष्ट अर्थ-शद्धचिद्रप लक्षण पदार्थ को देखने वालों-अनुभव कन्ने घाला के लिये ग्रह कुछ भी नहीं है।" भावार्थ:- यद्यपि चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान में प्रवृन्नि करने वालों के लिये यह व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है, फिर भी निविकल्प ध्यान में स्थित होकर शुद्ध आन्मतत्व के अनुभव करने वालों के लिये यह कुछ भी महत्व नहीं रखता है । क्योंकि मीदी की आवश्यकता ऊपर चढ़ने के लिये अवलंबनस्वरूप होनी है किंतु ऊपर पहुंचने १. समयमारकला , 2. . . . .. . .. .
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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