SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ラ・ तथा हि परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार ( मंदाक्रांता ) आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येय प्रमुखसु तपःकल्पनामात्ररम्यम् । बुध्वा घीमान् सहजपरमानन्दपीयूष पूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।। १२३ ॥ झारगणिलोणो साहू, परिचागं कुरणइ सम्बंदीसारणं । तम्हा झारणमेव हि सव्वविचारस्स पडिकमणं ॥ ६३ ॥ ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम् । तस्मातु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ॥६३॥ उसी प्रकार [टीकाकार श्री मुनिराज आत्मध्यान की प्रेरणा देते कहते हैं: - 1 [ २४५ ( १२३ ) श्लोकार्थ - आत्मा के ध्यान से भिन्न अन्य सभी कल घोर संसार का मूलकारण हैं और ध्यान ध्येय भेद हैं प्रमुख जिसमें ऐसा जो सम्यक् न है वह भी कल्पना मात्र से सुन्दर है ऐसा समझकर बुद्धिमान् साधु सहज परमानन्दरूपी अमृत के पूर में डुबकी लगाते हुए ऐसे एक सहज परमात्मा की प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ- तपश्चरण के बारह भेदों में ध्यान तप अंतिम है वह निर्विकल्प रूप-एकाग्र स्थिति रूप होता है। यदि ध्याता में ध्यान और ध्येय के विकल्प विद्यमान हैं तो वह ध्यानरूप तप ध्यान नाम को प्राप्त तो हो रहा है किन्तु वास्तविक कार्य की सिद्धि नहीं कर पाता है इसलिये इसे कल्पना मात्र से ही सुन्दर कह दिया है। बास्तव में बीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शुक्लध्यान से ही कर्मों का नाश होकर सहज परमात्मारूप अर्हत अवस्था प्रगट होती है अन्यथा नहीं, यहां यह अभिप्राय है । गाथा ६३ 'अन्वयार्थ – [ ध्याननिलीनः ] ध्यान में अतिशयरूप से लीन हुए [ साधु: ] साधु [सर्वदोषाणा ] संपूर्ण दोषों का [ परित्यागं ] परित्याग [ करोति ] कर देते हैं F
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy