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________________ 16 र-भक्ति अधिकार [ ३७७ विवरीयाभिणिवेसं, परिचत्ता जोण्ह'कहियतच्चेसु । जो जुजवि अप्पाणं, णियभावो सो हवे जोगो ॥१३॥ विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु । यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ।।१३६॥ जो विपरीत अभिप्राय, मन वच तन से तजते । जिन भाषित तत्त्वार्थ में निज को रत चाग्ने ।। उनका वह निज भाव, निश्चय योग कहाव । जो मुनि धारे योग वे ही निज सुख पावें ।। १३६ ।। इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्वेष बिपरीताभिनिवेशविजितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्तः । अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरोते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभिनिवेशः अमु परित्यज्य जैनकथित - - -... -.. .. . -. गाथा १३६ अन्वयार्थ--[ यः ] जो [ विपरीताभिनिवेशं ] विपरीत अभिप्राय को [ परित्यक्त्वा ] छोड़कर [ जैन कथित तत्वेषु ] जिनेंद्र देव द्वारा कथित तत्त्वों में । [आत्मानं युतक्ति] आत्मा को लगाता है । [ सः निजभावः ] उसका बह निजभाव । स्वरूप [योगः भवेत् ] योग होता है । टीका-अखिन गुगगी के धारक गणधर देव आदि जिनमुनिनाथों के द्वारा कहे गये तत्त्वों में विपरीत आग्रह मे रहित आत्मभाव ही निश्चय परम योग है, ऐसा यहां । पर कहा है। अन्य संप्रदाय के तीर्थ कर्ताओं के द्वारा कहे गये विपरीत पदार्थ में जो अभिनिवेशदुराग्रह है वही विपरीत अभिनिवेश है। इसको छोड़कर जिनेन्द्र देव द्वारा
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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