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________________ ३०२ ] नियमसार । मंदाक्रांता) एको भावा स जयति सदा पंचमः शुद्धशुद्धः कारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितो यः । मुलं मुक्त निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणा मेकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराण: ॥१६०। में सम्मिलित कर दिया है इसका मूल कारण यही है कि यह भी 'कर्मी के क्षय' इस उपाधि से विवक्षित है । यहां तो शुद्ध निश्चयनय से कर्मो की उपाधि आत्मा में त्रिकाल में भी नहीं है अतः परमपारिणामिकमात्र ही विवक्षित है । इस निश्चयनय के अबलंबन से शुद्ध आन्मा में तन्मय होने वाली आत्मा ही कारण परमात्मा कहलाती है । दुसरी बात यह है कि पहा नित्यनिगोद जीवों को भी शुद्धनिश्चय नय से परम पारिणामिकभाव वाला कहा है। उसमें अभव्यत्व नामक पारिणामिक हो तो भी उसकी यहां विवक्षा नहीं है, परन्तु मी नय विवक्षा से उन्हें शुद्ध कह देने से भी बे बेचारे शुद्ध नहीं हो सकते, न उनको कुछ आनन्द ही आ सकता है वे वेचारे अत्यन्त-. दयनीय दुरवस्था में पड़े हुए हैं। इसलिये शुद्धनिश्चयनय से अपने को शुद्ध समझकर हम लोगों को कृतार्थ नहीं हो जाना चाहिये, प्रत्युत उस शुद्ध अवस्था को प्रगट करने में अतीव पुरुषार्थ शील होना चाहिए । [अब टीकाकार मुनिराज पंचमभाब की महिमा बतलाते हुये दो श्लोक कहते हैं (१६०) श्लोकार्थ—जो कर्मदात्र ने रहित प्रगट सहज अवस्था से विद्यमान है आत्मा के स्वरूप में लीन हए ऐसे सभी संयमियों के लिये मुक्ति का मूल कारण है, एक स्वरूप है, अपने रस-अनुभव के विस्तार से परिपूर्ण भरा हुआ होने से पुण्यरूप अर्थात् पवित्र है और जो पुराण-सनातन है वह शुद्ध में भी शुद्ध परिपूर्ण शुद्ध है ऐसा एक पंचमभाव सदा जयशील हो रहा है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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