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________________ ४२६ । नियममार (गार्दूलविक्रीडित ) स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः प्रध्यस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः । तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्तिस्पृहो निस्पृहः स स्यात् सर्वजनाचितांत्रिकमल: पापाटवीपावकः ।।२७०।। ( मंदाक्रांता) मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम् । चेतः शीघ्र प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं लब्बा धर्म परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय ॥२७१।। - - --- - ---- .-..- - (२७०) श्लोकार्थ—पहले जा सभी पराण पुरुष योगी अपनी आत्मा की आराधना से अखिल कममती राक्षस गो को नाक या-जान से तीन लोक में व्यापक और जिष्णु-जयशील हुए हैं । उनको जो मुक्ति की स्पृहा बाला भी निःस्पृह जीव एकाग्र मन में नित्य ही प्रणाम करता है वह पापरूपी अटवी को दग्ध करने में अग्निस्वरूप और मर्व जनों से अर्चित चरण कमल वाला हो जाता है। भावार्थ-जो भव्य जीव स्यात्मा की आराधना से स्त्रात्मोपलब्धिम्प सिद्धि को प्राप्त कर चक हैं उनको एकाग्रचित्त से नमस्कार करने वाला भक्त भी स्वयं सर्वजन पूज्य भगवान् बन जाता है । (२७१) श्लोकार्थ-हे मन ! तू निर्मल मुख के लिये परम गझ मे धर्म को प्राप्त करके कनक और कामिनी सम्बन्धी हेयरून मोह को छोड़कर, नित्यानंदरूप निरुपम गुणों में अलंकृत, दिव्य जान वाले, अव्यग्ररूप-व्यग्रता ( आकुलता रहित ) ऐसे परमात्मा में शीघ्र ही प्रवेश कर । भावार्थ-यहां टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव महामुनि अपने मन को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे मन ! यदि तू परमात्मा में तन्मय होगा तो परमात्मा बन जावेगा अन्यथा बाह्य वस्तुओं में उलझा रहने से दुःख ही दुःख उठावेगा ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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