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________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा । अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ।। १५८ ।। तीर्थंकरात्रि सब पुरुषों ने इसी विध व्यवहार निश्चय पडावश्यक क्रिया कर ॥ [ ४२.७ हो अप्रमत्त फिर श्रेणी में पहुंच के । श्री केवली जिन हुए उनको न मैं ।। ११८६ परमावश्यकाधिकारोपधाय | स्वात्माश्रयनिश्रयधर्म शुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्ध निश्चय परमावश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थ करपरमदेवादयः स्वयं बुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाचाप्रमत्तादितयोगिभट्टारक गुणस्थानपंक्तिमध्यारूढाः सन्तः केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात् जाताश्चेति । गाथा १५८ अन्वयार्थ -- [ सर्वे पुराण पुरुषाः ] सभी पुराण पुरुष [ एवं ] इसप्रकार से [ आवश्यकं चकृत्वा ] आवश्यक को करके [ अप्रमत्त प्रभृति स्थानं ] अप्रमत्त आदि गुणस्थानों को [ प्रतिपद्य ] प्राप्त करके [ केवलिनः जाताः ] केवली भगवान् होगये हैं । टीका - परमावश्यक अधिकार के उपसंहार का यह कथन है । स्वात्मश्रित निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान स्वरूप वाह्य आवश्यक आदि क्रिया में प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय परमावश्यक रूप ऐसे साक्षात् अपुनर्भवरूपी रमणी के अनंग - अशरीरी - सुख के कारण को करके सभी पुराण पुरुष जिनमें से तीर्थंकर परमदेव आदि स्वयं बुद्ध हुये हैं और कोई बोधित बुद्ध हुये हैं ये सभी ही अप्रमत्न गुणस्थान से लेकर मयोग केवली भट्टारक पर्यंत गुणस्थानों की पंक्तियों के मध्य आरूढ़ होते हुए सकल प्रत्यक्ष (केवलज्ञान) धारी केवली भगवान् हुये हैं वे परमावश्यक स्वरूप आत्मा की आराधना के प्रसाद से ही हुये हैं ऐसा समझना । [ अब टीकाकार मुनिराज इस अधिकार के उपसंहार में आत्मा की आराधना लिये प्रेरित करते हुए दो श्लोक कहते हैं--]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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