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________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४३६ । स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया सद्भिरनवरतम् तत्रकान्ततो ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्थान्मते वर्शनमपि शुद्धास्मानं पश्यति । वसनज्ञानप्रभृत्यनेकधर्मागामाधारो द्वारमा । व्यवहारपक्षेपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य न चात्मसंबन्धः । सदा बहिरवस्थितत्वात्, आत्मप्रतिपत्त रभावात् न सर्वगतस्वं; अतःकारणाविदं ज्ञानं न ह भाति, मृगतृष्णाजलवत् प्रतिभासमात्रमेव । दर्शनपक्षेऽपि तथा न केवलमभ्यन्तरप्रतिप तिकार वर्शनं भवति । सदैव सर्व पश्यति हि चक्षः स्वस्याभ्यन्तरस्थितां कनीनिकां न पश्यत्येव । अतः स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव । ततः स्वपरप्रकाशको हात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति । 1. तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः इसलिये सत् पुरुषों को अविरुद्ध स्याद्वाद विद्या देवता की सम्यक् प्रकार से अर्चना-आराधना करनी चाहिये, उस स्याद्वाद में एकांत से जान को पर प्रकाशकता नहीं है, स्याद्वादमत में दर्शन भी केवल शुढात्मा को ही नहीं देखता है। क्योंकि आत्मा दर्शन, जान आदि अनेक धर्मों का आधार है। व्यवहार पक्ष में भी केवल परप्रकाशीज्ञान का आत्मा के साथ संबंध नहीं रहेगा, क्योंकि सदा वह बाहर ही स्थित रहेगा, तथा आत्मा के ज्ञान का अभाव होने से वह सर्वगत भी नहीं रहेगा और इस कारण से यह ज्ञान ही नहीं होगा प्रत्युत मृगतष्णा के जल सदृश प्रतिभास मात्र ही रहेगा। दर्शन के पक्ष में भी कहते हैं कि उसी प्रकार से दर्शन भी केवल अभ्यंतर के ज्ञान का कारण नहीं है क्योंकि चक्ष सदा ही सब देखतो है, किन्तु अपने भीतर में स्थित हुई कनीनिका-पुतली को नहीं देखती है । इसलिये ज्ञान और दर्शन इन दोनों में स्वपर प्रकाशपना अविरुद्ध ही है। इस हेतु से ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है, ऐसा समझना । ___उसी प्रकार से श्रीमान् अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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