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________________ जीव अधिकार [ १७ देवनारकतिर्यटः मनुष्यपर्यायेत्पचिर्जन्म । दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञान। ज्योतिरेव निद्रा । इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । एमिमहादोषेप्तिास्त्रयो लोकाः । एतविनिमुक्तो वीतरागसर्वश इति । .. तथा चोक्तम्"सो धम्मो जत्थ दया सो वि तवो विसणियहो जत्थ । दसअठ्ठदोसरहिरो सो देवो पत्थि सन्देहो ॥" भी मोहलोय कर्म की सहायता बिना सामर्थ्य रहित हो गया है अतः वह अपने योग्य क्षुधा, तृणा मादि परीपहों को उत्पन्न करने में असमर्थ है। इसी बात को गोम्मटसार कर्मकांड में भी कहा है "केवली' भगवान् के घातिया कर्म के अभाव में मोहनीय के भेद जो रागद्वेष हैं वे नष्ट हो चुके हैं । जानावरण के नष्ट हो जाने से इंद्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञान भी नष्ट हो चुका है इसलिये केवली भगवान के साता-प्रमाता जन्य इंद्रिय विषय गुम्ब-दुःख भो लेश मात्र नहीं होते है जिस कारण केवली भगवान् के एक साताबेदनीय का बंध सो भी एक समय की स्थिति वाला ही है, इस कारण वह उदय रूप ही है और इसी कारण असाता का उदय भी साता स्वरूप में ही परिणमन कर जाता है क्योंकि असातावेदनीय सहाय रहित होने से तथा बहुत हीन होने से मिष्ट जल में खारे जल की एक बून्द की तरह कुछ कार्य नहीं कर सकता । इस कारण से केवली के हमेशा सातावेदनीय का ही उदय रहता है इमीलिये असाला के निमित्त से होने वाली क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृण, स्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह है वे जिनेन्द्र भगवान के कार्य रूप नहीं होती हैं।" यही कारण है कि अहंत भगवान् कवलाहारी नहीं हैं, वे क्षुधादि अठारह महादोषों से सर्वथा रहित हैं और अनंत चतुष्टय से सहित पूर्णतया मुखी हैं। - ... १. गाद्रा य ायदोसा दियारणा च केवलिम्हि जदा । तेण दुसादा सादज सुह दुक्वं गधि इन्दिय जं॥२७३।। समयट्टिदिगो धो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स । तेण प्रसादस्मदो सादसत्वेग परिणमदि ।।२७४।। एदेण कारणे दु सादरसेव हु गिरतरो उदयो । सेणासाद गिमित्ता परीसहा जिगावरे णत्यि ।।२७५॥ [ कर्मकाई ]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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