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नियमसार
कवित्वनिखिलजनताकर्णामृतस्यंदिसहजशरीर फुलबलश्वय्यरात्माहंकारजननो मदः । मनोज्ञेषु वस्तुष परमा प्रोतिरेव रतिः । परमसमरसीभावभावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्ववर्शनाद्विस्मयः । केवलेन शुभकर्मणा, केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रण
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में उत्पत्ति का होना, केवल अशुभकर्म से नरक पर्याय में उत्पत्ति का होना, माया से तिर्यंच पर्याय एवं शुभाशुभ के मिश्र से देवपर्याय में उत्पत्ति होना जन्म कहलाता है । दर्शनावरणीय कर्म के उदय से ज्ञान ज्योति का अस्त हो जाना ही निद्रा है। इष्ट वियोग के होने पर घबराहट का होना उद्वेग है । इन महादोषों सं तीनों लोक व्याप्त हो रहे हैं, इन दोनों से रहित वीतराग सर्वज्ञ भगवान् ही है।
कहा भी है--"धर्म वही है जहां दया है, तप भी वही है जहां विषयों का निग्रह है, देव वही है जो अठारह दोषों से दिन है इसमें संदेह नहीं है ।"
विशेषार्थ--तेरहवे गुणस्थान में साना-असातावेदनीय में से किसी एक की उदय व्युच्छित्ति होती है और चौदहवं गुणस्थान में शेष बची एक वेदनीय की व्युच्छित्ति होती है इसलिये प्रश्न यह होता है कि अन्य गुग स्थानों में जैसे साताअसाता के उदय से इन्द्रिय जन्य सुख तथा दुःख होता है वैस कंबली भगवान् के भी होना चाहिये और तब नो असातावेदनोय के निमित्त से होने वाली ग्यारह परीपह भी अरिहंत भगवान् के मानना चाह्येि कहा भी है--'एकादशजिने' जिनेन्द्र भगवान में ग्यारह परोषह हैं ऐसा सूत्रकार का वचन है । "वेदनीय के उदय का सद्भाव होने से उनके क्षुधा तृषा आदि का प्रसंग है । ऐसा नहीं कहना क्योंकि घातिकर्म के उदय की सहायता का अभाव हो गया है इसलिये इस वेदनीय में क्षुधा आदि बाधा को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं रही है ।" जैस विष द्रव्य की मंत्र औषधि अादि के बल से मारण शक्ति नष्ट कर देने के बाद वह मरगा के लिये कारगा नहीं होता है उसी प्रकार से ध्यान अग्नि सं घातिकर्म झपो ईवन को भस्म कर देने के बाद अनंत दर्शन, ज्ञान, शक्ति और मुख के प्रगट हो जाने पर निरन्तर शुभ पुद्गल वर्गणायें पा रही हैं जिससे अरिहंत भगवान् के परमौदारिक शरीर की स्थिति कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक बनी रहती है । इसलिये वेदनीय कर्म यद्यपि विद्यमान है तो
- - - - - १. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ०६१३, अध्याय ६ ।