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________________ ३५४ } नियमसार जस्स सगिहिदो अप्पा, संजमे रिणयमे तवे । तस्स सामाइगं ठाई, इदि फेवलिसासणे ॥१२७॥ यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ॥१२७।। जिमा की आत्मा लगी भयम नियम तप में सदा। उम रूप परिणति हो रही निश्चय रतनत्रय युत सदा ।। उल ही मुनी के सर्वथा, स्थायि सामायिक रहे । श्री केवली अईत गासन में इसीविध से कह ।। १२७।। अत्राप्यात्मवोपादेय इत्युक्तः । यस्य खल बाह्यप्रपंचपराङ मुखस्य निजिताकि लेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पापक्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाड मनोगुप्तिमः सकलेन्द्रियव्यापारजितेऽभ्यन्तरात्मनि परिमितकालाचरणमात्रे नियमे परमब्रह्मचिन्म । - - - . . .... ..- - भावार्थ-इस शुद्ध आत्मतत्त्व को चार ज्ञानधारी और सप्त ऋद्धि समन्धित ऐसे गणधर देव भी अपने हृदय में विराजमान करके ध्यान करते हैं यह शुद्धा निश्चयनय की अपेक्षा एकान्तरूप से अपनी महिमा में ही तत्पर है फिर भी सम्यग्दर्शि जन इसका अनुभव करते हैं । गाथा १२७ अन्वयार्थ-[यस्य प्रात्मा] जिसकी आत्मा, [संयमे] मंग्रम में, [ नियम नियम में, और [तपसि] तप में, [सन्निहितः] निकट है, [तस्य] उसके. [सामामि स्थायि] सामायिक व्रत स्थायी है, [ इति केलिशासने ] ऐसा केवली भगवान में शासन में कहा है। टोका-आत्मा ही उपादेय है ऐसा यहां पर भी कथन है । जो बाह्य प्रपंच से पराङ मुख हैं, अखिल इंद्रियों के व्यापार को जिन्होंने जीत लिया है ऐसे जो भावी जिन हैं उनके निश्चितरूप से पाप क्रिया से निवृत्ति बाह्य संयम में, काय गुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्तिरूप सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापार
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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