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________________ Mail निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ४११ सत्काराविलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चकारेति स बहिरात्मा जीव इति । स्थात्मध्यानपरायणस्सन निरक्शेषेणान्तमुखः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तविकल्पजालकेषु कदा चिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधनः साक्षादंतरात्मेति । तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( वगंततिलका ) "स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिः सररसंफरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥" आदि लाभ के लोभी होते हुए अंतर्जल्प में मन को लगाते हैं ये बहिरात्मा जीव हैं । इनसे अतिरिक्त जो मुनि म्बात्मध्यान में परायण होते हुये, परिपूर्णरूप से अंतर्मुख हुय, प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त विकल्प जालों में कदाचित् भी नहीं वर्तते हैं। इन हेतु गे बे परम तपोधन साक्षात् अन्तरात्मा होते हैं। भावार्थ- यहां पर भी अन्तरात्मा से सातिशय अप्रमत्त सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनियों से लेकर ग्यारहव तक मध्यम अन्तरात्मा गौणलया और बारहवें गणस्थानवी उत्तम अन्तरात्मा मुख्यतया विवक्षित हैं, क्योंकि टीकाकार ने 'साक्षात्' यह पद रखा है। उसीप्रकार से श्री अमनचन्द्रसूरि ने भी कहा है "श्लोकार्थ-'जिसमें स्वेच्छा मे बहुत से विकल्प जाल उठ रहे हैं ऐसी इस । विशाल नयपक्ष की कक्षा-नयों के समूह की भूमिका को उलंघन करके अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग में समरसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने आव को यह तत्त्ववेदी प्राप्त कर लेता है।" १. समयसार कल शह।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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