SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१० ] नियमसार अन्तरबाहिरजप्पे, जो बट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा | जप्पेसु जो रण वट्टइ, सो उच्चइ अन्तरंगप्पा ॥ १५० ॥ अन्तरबाह्यजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा । जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा ॥ १५०॥ जो बाह्य जल्प अरु अन्तरजल्प में भी । वर्तन करे वह मुनी बहिरातमा है || जो जन्म से रहित सर्व विकला शुन्य | ही अमरण सतत अन्तर आत्मा हैं ॥। १५० ।। बाह्याभ्यन्तरजल्प निरासोऽयम् । यस्तु जिन्नलिंगधारी तपोधनाभासः पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यानस्तवनादिबहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानाविषु है। इसलिये यह पति से में स्थित होता हुआ अन्तरात्मा होता है और जो स्वात्मा से भ्रष्ट है तथा बाह्यतत्त्वों में निष्ठ है वह बहिरात्मा होता है । भावार्थ- हां पर मात्र उत्तम अन्तरात्मा ही विवक्षित है। गौगारूप से मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा भी आ जाते हैं क्योंकि वे भी आत्मतत्त्व की भावना में तथा उसके साधनभूत ऐसे जिनेन्द्रदेव कथित व्यवहार मार्ग में स्थित हैं। किंतु जो आत्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र से रहित हैं वे बहिरात्मा हैं । गाथा १५० अन्वयार्थ -- [ यः ] जो [ अन्तरबाह्यजल्पे ] अन्तरङ्ग और बहिरंग जल्प में [वर्तते ] वर्तता है, [सः बहिरात्मा ] वह बहिरात्मा [ भवति ] होता है, और [ यः जल्पेषु ] जो जल्पसमूह में [ न वर्तते ] नहीं रहता है, [सः अन्तरंगात्मा ] वह अंतरात्मा [ उच्यते ] कहा जाता है । टीका - यह, बाह्य और अंतर जल्प का निराकरण है। जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास मुनि पुण्य कर्म की आकांक्षा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदि रूप बाह्य जल्प को करते हैं, और अशन, शयन, गमन, स्थान आदि क्रियाओं में सत्कार
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy