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________________ परम-पालोचना अधिकार [ ३०६ मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहि ॥११२॥ मदमानमायालोभविजितभावस्तु भावशुद्धिरिति । परिकथितो भव्यानां लोकालोकप्रवशिभिः ॥११२।। मान मद छम प्रो लोभ से गत रहे । भाव वो भव्य का भाव शुद्धी रहे ।। लोक आलोक को जो प्रकट देखते । वे कहें निश्चयालोचना से इरो ॥११२॥ भावशुद्धधभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण शुद्धनिश्चयालोचनाधिरोपसंहारोपन्यासोऽयम् । तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुवेदाभिधाननोकषायविलासो --- --... भावार्थ--शुद्धनिश्चयनय से शुद्धज्ञानमय आत्मा का ध्यान वीतरागी मुनि से करते हैं । वास्तव में छठे गुणस्थानवर्ती मुनि उसकी भावना करते हैं, किन्तु जो दषय सुखों में रत हैं ऐसे गृहस्थों के लिये इस शुद्धात्मा का ध्यान कठिन है। जो पत्र सहित तथा विषयासक्त होकर भी शुद्धात्मा के ध्यान की बात करते हैं वे अनर्गल अशाप करते हैं। उन्हें पहले पंचपरमेष्ठी के अवलम्बनरूप ध्यान का अभ्यास ही पस्कर है और वहीं उनके लिये शक्य भी है। शुद्धोपयोग की प्राप्ति के लिये सर्व ग्रह का त्याग परमावश्यक है। गाथा ११२ .. अन्वयार्थ- [ मदमानमायालोभवियजितभावः तु ] मद-मदन, मान, माया और लोभ से रहित ही [भावशुद्धिः] भावशुद्धि है [इति ] ऐमा [लोकालोक प्रशिभिः] और अलोक को देखने वाले जिनेन्द्र देव ने [भव्यानां] भब्यों को [परिकथितं] टीका-भावशृद्धि नामक परमआलोचना के स्वरूप प्रतिपादन द्वारा शुद्ध वयालोचना के अधिकार के उपसंहार का यह कथन है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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