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________________ नियमसार ३६६ ] इति सुफविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपमप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवमः श्रुतस्कन्धः ।। - --- ... - - -.- -. -. - - - -. - - - - - - - - - --- भावार्थ-~शुद्ध रत्नत्रय से परिणत हुए जीव किसी एक अद्भुत तत्त्व को प्राप्त कर लेने हैं। वास्तव में वह तत्व संसारो जोवों के वचनों से भी परे है और मन के भी अगोचर है केवल महासाधुओं को ही गम्य है । विशेषार्थ-इस "रमसमाधि अधिकार में गाथा १२२ से लेकर १३३ पर्यन्न वीतराग निविकल्प समावि में स्थित होकर आत्मा के ध्यान करने का उपदेश है । नुस ध्यान की सिद्धि के लिये जीवित-मरण, सुख-दुःख आदि में समता भाव रखना परम आवश्यक है उसी समता का वर्णन करके आचार्य देव ने जिनेन्द्र देव के शासन में कथित सामायिक का वर्णन नौ गाथाओं द्वारा नव प्रकार से कहा है। जिसमें कि त्रिगुप्ति, सर्व जीवों में समभाव, संयम आदि में सन्निकटता, रागद्वेष का अभाव, आतं रौद्र ध्यान का त्याग, पुण्य-पाप का वर्जन, हास्य-रति आदि नव नो कपायों का वर्जन ये सब सामायिक का लक्षण है। जो कि शुद्धात्म तत्त्व में स्थिर अवस्थारूप स्थायी सामायिक होती है। यहां पर निकाल देव वंदनारूप सामायिक के अतिरिक्त सर्व सावधयोग से निवत्तिरूप सामायिक चारित्र विवक्षित है, क्योंकि निश्चय Hध्यान भी बाह्य विकल्पों से रहित निर्विकल्परूप है और शुक्लध्यान भी शुद्धोपयोग परिणतिरूप है, ऐसा समझना । इसप्रकार सुकविजन कमलों के लिये सूर्य स्वरूप पंचेन्द्रिय के प्रसार से वजित गात्र-मात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारी देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परम समाधि अधिकार नामक नवमां अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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