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________________ परम-समाधि अधिकार [ ३६५ लबाह्यक्रियापराङ मुखं शश्वदंतःक्रियाधिकरणं स्वात्मनिष्ठनिर्विकल्पपरमसमाधिसंपकारणाभ्यां ताभ्यां धर्मशुक्लध्यानाभ्यां सदाशिवात्मकमात्मानं ध्यायति हि तस्य खलु नेश्वरशासननिष्पन्न नित्यं शुद्ध त्रिगुप्तिमुप्तपरमसमाधिलक्षणं शाश्वतं सामायिकभवतीति । (मंदाकांता) शुक्लध्याने परिणतमतिः शुद्धरत्तत्रयात्मा धर्मध्यानप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन । प्राप्नोत्युच्चरपगतमहदुःखजालं विशालं भेदाभावात् किमपि भविनां वाङमनोमार्गदरम् ।।२१६॥ दय आनंदरूपी समुद्र में निमग्न, सकल बाह्य क्रिया से पराङ्मुख और हमेशा यन्तर क्रिया के आधारभूत सदाशिव स्वरूप ऐसी आत्मा को ध्याते हैं अर्थात अपनी मा में निष्ठ निविकल्प परमसमाधिरूप संपत्ति के लिये कारण ऐसे उन धर्म और ल ध्यान से अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उनके निश्चितरूप से जिनेश्वर के सन में निप्पन्न हुआ, नित्य, शुद्ध, त्रिगुप्ति से गुप्त ऐसा परम समाधिरूप शाश्वत समायिक व्रत होता है। भावार्थ--निश्चय धर्म और शुक्लध्यान से जो अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं, उन निर्विकल्प योगी के निर्विकल्प समाधि होती है, उसीका नाम शाश्वत मायिक है। । [अब टीकाकार मुनिराज इस अधिकार की पूर्ति करते हुए परम समाधि के कल को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं-] (२१९) श्लोकार्थ-निर्दोष परमानन्द तत्त्व के आश्रित ऐसे इस धर्मध्यान मैं अथवा शुक्लध्यान में जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है, वह शुद्ध रत्नत्रयात्मक जीव किसी एक अद्भुत विशाल और महान् दुःख समूहों से रहित तत्त्व को अतिशयरूप से माप्त कर लेता है, जो कि भेद के अभाव से संसारी जीवों के वचनमार्ग और मनो
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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