________________
टीकाकार पचप्रभमसधारी देव के कुछ टीका के अंश मो इस विषय में द्रष्टव्य हैं । गाथा १VE की टीका में अंतरात्मा का लक्षण देखिये-"स्वशाभिधानपरमधमणः सर्वोत्कृष्टोतरारमा, पोग्गायाणामभावाद भोणमोहपदवी परिप्राप्य स्पितो महात्मा ।"
"स्वक्श" नाम के परम श्रमण सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा हैं, सोसह कषायों के प्रभाव से ये सीएमोह पदवी को-चारहवें गुणस्थान को प्राप्त हुये महात्मा है । यहाँ तो वारहर्षे गुणस्थान के अंतरात्मा को लिया है यह बात स्पष्ट कर दी है।
गाथा १५० की टीका में "स्वामध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तमुखः प्रशस्ताप्रशस्त समस्तविकल्प. जालकेषु कदाचिदपि न वर्तते प्रत एव परमतपोधनः साक्षातरात्मेति ।"
स्वात्मपान को करने में सत्पर ये संपूर्ण रूप से अंतर्मुख होकर शुभ-अशुभ समस्त विकल्पों में कदानित भी नहीं बदंते हैं इसीलिये वे परम तपोधन सामान अंतरात्मा हैं। गाथा १५१ को टीका में पंक्ति है"इह हि सामादन्तरात्मा भगवान क्षीणकयायः ।" यहां पर निश्चित ही साक्षान अंतरात्मा भगवान कोण काय मुनि हैं।
इन सव उदरणों से समझना चाहिये नि. इम नियमसार में निपचय क्रियायें बारहवं गुणस्थानवती मुनि के ध्यान में पटित होती है । उसके पूर्व सातवें से लेकर ग्यारहवें तप भी शुद्धोपयोग में प्रारंभ होने की अपेक्षा घटित होती है।
गाथा १३३ को टोका में कहा है कि शाश्वत सामायिकयत ध्यान में ही होता है
"पस्तु ...... धर्मशुक्ल ध्यानाम्यां सदाशिवात्मकमात्मानं घ्यायति हि तम्य वलु जिनेश्वरशासननिष्पन्न नित्यं शुद्ध' त्रिगुप्त गुप्तपरमसमाधिलक्षण काश्वतं सामाथिमवतं भवति ।" जो धमध्यान शुक्लध्यान के द्वारा सदा शिव स्वरूप प्रात्मा को निरंतर ध्याते हैं ! उन के ही जिनेश्वर के शासन में प्रसिद्ध नित्य शुद्ध त्रिगुप्ति से गुप्त परम ममाधिनक्षगा शाश्वत मामापिकात होता है।
गाथा १२५ की टोका में बिगुप्त का लक्षण किया है
"अगस्ताप्रशस्त समस्तकायबा मनसो व्यापारामारात् त्रिगुप्तः ।"
शुभ नभ समस्त मन बचन काय के व्यापार का प्रभाव हो जाने में तीन मतिया से गृप्त पदम्या होनी है।
2-
निश्तपत्रमा वामी को बनाया :"य: ... ... ... ... ....... निगुप्ति गुप्त निविकल्पपरमसमाधिसक्षणमाभा अगपूर्वमामानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंपमी अतएव म निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति ।"