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________________ a . Pune नियमसार प्रतोऽध्यात्म ध्यानं कथमिह भवेधिर्मलधियां निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।।२६४।। जिणकहियपरमसुत्ते, पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं । मोणबएण जोई, णियकज्ज साहये रिणच्चं ॥१५॥ जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्ष्ययित्वा स्फुटम् । मौनव्रतेन योगी निजकार्य साधयेन्नित्यम् ॥ १५५ ।। - - - - - -------. - -- -- -.-- -.. -- भावार्थ-यहां टीकाकार का गप्टरूप में कहना है कि इस निकृष्ट काल में हीन संहनन होने से अध्यात्म ध्यान नहीं हो सकता है अन: आन्म तत्त्व का श्रद्धान ही करना उचित है । इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि पुनः इन अध्यात्म ग्रंथों की रचना क्यों की गई है ? किन्तु ऐसी बात नहीं है । जिनागम के द्वारा ऊंची से ऊची अवस्थाओं की सभी बातों का वर्णन ग्रंथों में तो रहेगा ही और अपनी योग्यता के अनुसार ही ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये । पहले धावकों को श्रावकाचार आदि ग्रंथों से अपनी जीवन चर्या अवश्य निर्दोष बनाना चाहिए अनन्तर इन ग्रंथों के स्वाध्याय से सम्यग्जान को वृद्धि करना चाहिए। भगवती आराधना ग्रंथ में एक इसीप्रकार से प्रश्न हुआ है । यथा-"यदि ते वर्तयितु इदानींतनानामसामर्थ्य किं तदुपदेशेनेति चेत् तत्स्वरूप परिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं । तच्च मुमुक्षूणामुपयोग्येवेति ।" अर्थात् यदि भक्त प्रत्याख्यान मरण ही आजकल हो सकता है तथा उत्तम संहनन के अभाव में प्रायोपगमन और इंगिनी इन दो मरणों को करने के लिए आजकल के साधुओं में सामर्थ्य नहीं है तो यहां पर इनका उपदेश क्यों करते हैं ? ऐसी बात नहीं है क्योंकि उनका स्वरूप जानने से सम्यग्ज्ञान होता है जो कि मुमुक्षुओं के लिए उपयोगी ही है ।। गाथा १५५ ___ अन्वयार्थ-[जिनकथितपरमसूत्रे] जिनकथित परम सूत्र में [ प्रतिक्रमणादिकं ] प्रतिक्रमण आदि की [स्फुट परीक्षयित्वा] प्रगटरूप से परीक्षा करके [ योगी १. भगवती आ, थी अपराजित सूरिकृत टीका में पृ. ११० ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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