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________________ मार्गदर्शकाचार्य निश्चय परमावश्यक अधिकार [ ४१६ अत्र शुद्धनिश्चयधर्म ध्यानात्मक प्रतिक्रमणादिकमेव कर्तव्यमित्युक्तम् । मुक्तिसुन्दरीप्रथमदर्शनप्राभृतात्मक निश्चयप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तप्रत्याख्यानप्रमुखशुद्धनिश्चय क्रियाश्चैव कर्तव्याः संहनन शक्तिप्रादुर्भावे सति हंहो सुनिशार्दूल परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पंचेन्द्रियप्रसरअजितगात्र मात्र परिग्रह | शक्तिहीनो यदि दग्धकाले काले केवलं स्वया निजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति । (शिरी ) असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले न मुक्तिमार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति । टीका-- शुद्धनिश्चय धर्मध्यानरूप प्रतिक्रमण आदि ही करना चाहिए ऐसा यहां पर कहा है । सहज वैराग्यरूपी प्रासाद के शिखर के शिखामणि स्वरूप परद्रव्य से पराङ्मुख हुये तथा स्वदव्य में निष्णात बुद्धिमन् ! पंचेन्द्रिय के प्रसार से वर्जिन गात्रमात्र परिग्रह धारक, परमागमरूपी मकरंद के अरते हुए मुखकमल से शोभायमान ऐसे है पद्मप्रभ मुनिपुंगव ! संहनन शक्ति के प्रादुर्भाव होने पर तो मुक्ति सुन्दरी के प्रथम दर्शन में भेंट स्वरूप ऐसे निश्चय प्रतिक्रमण, प्रायश्चित और प्रत्याख्यान प्रमुख शुद्धनिश्चय क्रिया ही करना चाहिये और यदि इस दग्धकालरूप अकाल ( पंचमकालरूप कलिकाल में ) तु शक्तिहीन है तो तुझे केवळ निजपरमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही करना चाहिये 1 [ टीकाकार मुनिराज उसी श्रद्वान की प्रेरणा देते हुए कलश काव्य कहते हैं--] कलिकाल के विलास से सहित मुक्ति नहीं होती है इसलिये इस ( २६४) श्लोकार्थ - - पाप से भरपूर और इस असार संसार में निर्दोष जिननाथ को इस मार्ग में काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है ? निर्मल बुद्धि वालों ने भवभय हारी ऐसे इस निजात्मा के श्रद्धात को ही स्वीकृत किया है । !
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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