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________________ शुद्धभाव अधिकार [ ११५ तभावचतुष्टय मावरणसंयुक्तत्वात न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाघिस्वरूपनिरंअनिअपरमपंचममावभावनया पंचमर्गात मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति । वह शायिकभाव आवरणों के क्षय से प्रगट होता है और मुक्ति में भी विद्यमान है वहां केवल पारिणामिक शुद्ध स्वभावकी विवक्षा होने के कारण इसे कर्मोपाधि के नाव होने से प्रौपपाधिक रूप ही मान लिया है ऐसी विवक्षा ज्ञान होती है क्योंकि सगाथा ४१ में स्वयं ही श्री भगवान कुन्दकुन्ददेव ने "गो खइयभावठाणा" वाक्य दिया हुआ है। 'कहीं पर इससे विपरीत भी कहा है जैसे "मोक्ष कुर्वति मिश्रौपशमिक क्षायिकाभिधाः । बंधमौदयिको भावो निष्क्रियः पारिणामिक: ।।" । अर्थ-वायोपशामक, औपशमिक और क्षायिकभाव मोक्ष को करने वाले हैं, चोदयिक भाव बंध को करने वाला है और पारिणामिक भाव निष्क्रिय है । अर्थात् लीकाकार श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि "निर्विकल्प शुद्धात्म परिच्छिति" लक्षण सीतराग चारित्र से अविनाभूत प्रभेदनय से वहीं शुद्धात्म शब्द से वाध्य क्षायोपशमिक के भाव श्रु तजान मोक्ष का कारण होता है किन्तु शुद्ध पारिणामिक भाव शुद्ध भावना र अवस्था में ध्येय रूप है, ध्यान रूप नहीं है इत्यादि । पंचास्तिकाय में कहा है-- "उदयेण उपसमेण य खयेण दुहिं मिस्सदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा ।। ५६।।" अर्थ- उदय से, उपशम से, क्षय से और दोनों के मिश्रित-क्षयोपशम से क तथा परिणाम से युक्त ऐसे ये जीव के गुण हैं और उन्हें अनेक प्रकार से विस्तृत वित किया गया है । । उपर्युक्त गाथा को टीका में श्री अमृतचन्द्र देव ने कहा है- "तत्रोपाधिचतुत्वनिबंधनाश्चत्वार: स्वभावनिबंधन एकः" । इन पांच गुणों में उपाधि की चार SEACH १. समयसार गाथा ४१४, टीका जयसेनाचार्यकृत पृ० ५०६ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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