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________________ १३० ] नियमसार ( इंद्रवज्ञा) इत्थं निजजन निजात्मतत्त्वमुक्त पुरा सूत्रकृता विशुद्धम् । बुद्ध्या च यन्मुक्तिमुपैति भव्यस्तद्भावयाम्युत्तमशर्मणेऽहम् ॥६७।। ( बसंततिलका ) प्राद्यन्तमुक्तमनघं परमात्मतत्त्वं निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम् । तद्भावनापरिणतो भुवि भव्यलोकः सिद्धि प्रयाति भवसंभवदुःखदूराम् ॥६॥ रिणग्गंथो गोरागो, रिणस्सल्लो सयलदोसरिणम्मुक्को। रिपक्कामो णिक्कोहो, रिणम्माणो रिणम्मदो अप्पा ॥४४॥ निर्ग्रन्थो नीरागो निःशल्यः सकलदोषनिमुक्तः । निःकामो निःोधो निर्मानो निर्मदः प्रात्मा ॥४४।। - - - - - (६७) श्लोकार्थ-इस प्रकार से आत्मज्ञानी मुत्रकार ( श्री कुदबुद देव ) ने विशद-निज आत्मतत्व को पहले कहा है। जिसको जानकर भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । सुग्व की प्राप्ति के लिए मैं भी उस आत्मतत्त्व की भावना करता हूँ। (६८) श्लोकार्थ-परमात्मतत्त्व आदि अंत में रहित है, निर्दोष है, निर्द्वन्द्वद्वत अथवा कलह से रहित है. अक्षय विशाल श्रेष्ठ ज्ञानस्वरूप है। इस संसार में उस परमात्मतत्व की भावना से परिणत हुये भव्य जीव, भव से जनित दुःखों से दूर ऐसी सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् जो इस परमात्मतत्त्व की भावना में परिणततन्मय हो जाते हैं वे संसार के दुखों से छुटकर मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । गाथा ४४ अन्वयार्थ--[प्रात्मा] यह आत्मा [निम्रन्थः] ग्रंथ-परिग्रह से रहित, [नीरागः] राग रहित, [निःशल्यः] शल्य रहित, [ सकलदोषनिमुक्तः ] संपूर्ण दोषों से रहित,
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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