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________________ परम-भक्ति अधिकार निजपरमात्मभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । भेदकल्पना निरपेक्षनिरुपचाररत्नत्रयात्मके निरपरागमोक्षमार्गे निरंजननिजपरमात्मानंदपीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निर्वृतेर्मु क्त्यंगनायाः चरणनलिने परमां भक्ति, तेन कारणेन स भव्यो भक्तिगुणेन तिरावर सहजज्ञानगुणत्वादस हायगुणात्मकं निजात्मानं प्राप्नोति । ( स्रग्धरा ) [ ३७३ आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलित महाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् free front fनरुपमसहजज्ञानशीलरूपे । संस्थाप्यानंद भास्वन्निरतिशयगृहं चिचचमत्कार भक्त्या प्राप्नोत्युच्रयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः ॥ २२७ ॥ टीका - यह अपनी परमात्मा की भक्ति के स्वरूप का कथन है । निरंजन निज परमात्मा के आनन्द रूपी अमृत के पान करने में अभिमुख जो जीव, भेद कल्पना से निरपेक्ष अनुपचार रत्नत्रय स्वरूप ऐसे वीतरागरूप मोक्षमार्ग में अपनी आत्मा को सम्पर्क प्रकार से स्थापित करके भी निर्वाणरूपी मुक्ति स्त्री के चरण कमलों में परम भक्ति करता है उस कारण से वह भव्य जीव भक्ति गुण के द्वारा साधरण रहित सहज ज्ञान गुणरूप होने से असहाय गुणस्वरूप ऐसी अपनी आत्मा को प्राप्त कर लेता है । [ अब टीकाकार मुनिराज निश्चय भक्ति को बतलाते हुए कहते हैं— ] श्लोकार्थ --- इस अविचल महाशुद्ध रत्नत्रय स्वरूप, मुक्ति के लिए कारणभूत मा रहित सहज ज्ञान, दर्शन और शीलरूप, ऐसी नित्य आत्मा में आत्मा को ापित करके यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की भक्ति द्वारा आनन्द से शोभायमान निरतिशय स्थानरूप तथा विपदाओं से विरहित ऐसे पद को अतिशयरूप से प्राप्त कर ता है और वह सिद्धिरूपी भार्या का स्वामी हो जाता है ।। २२७|| भावार्थ - आत्मा को आत्मा के द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में ही स्थिर करके ध्यान करने वाला व्याता इस निश्चय भक्तिरूप निर्विकल्प समाधि के अक्षय स्वरूप सिद्ध स्थान को प्राप्त कर लेता है |
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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