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________________ ३७४ ] नियमसार रायादीपरिहारे, अप्पारणं जो दु जुजदे साहू । सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्स य कह हवे जोगो ॥१३७॥ रागादिपरिहारे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः । स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथं भवेद्योगः ॥१३७।। ओ साधु गगादि, योष दूर करने में । निज आत्मा को नित्य, लगा रहे उसही में ।। उनका ही वह यत्न, योगभक्ति कहलाये । अन्य साधु के योग, क्या कैसे हो पावे ? ।।१३।। निश्चययोगभक्तिस्वरूपान्यानमेतत् । निरवशेषेणान्तमु खाकारपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वषादिपरभावानां परिहारे सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानन्दस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं युक्ति, स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्तियुक्तः । इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं योगभक्तिर्भवति । - - - - - - - - - - - -- - - -- - - - - - - - - - - -- गाथा १३७ अन्वयार्थ-[यः तु साधुः] जो साधु [रागादि परिहारे] रागादि के परित्याग में [आत्मानंयुनक्ति] आत्मा को लगाता है [ स: योगभक्तियुक्तः ] वह योग भक्ति से युक्त है । [इतरस्य च] अन्य साधु के [योगः कथं भवेत् ] योग कैसे हो सकता है ? । टीका-यह निश्चय योग भक्ति के स्वरूप का कथन है । परिपूर्ण रूप से जो अन्तर्मुखाकार परम समाधि है उसके द्वारा समस्त मोह, राग द्वषादि परभावों का परिहार हो जाने पर जो आसन्न जीव ऐसा साधु अखण्ड, अद्वैत परमानन्द स्वरूप निज के साथ निजकारण परमात्मा को युक्त करता है वह परमतपोधन ही शृद्ध निश्चय उपयोग की भक्ति से युक्त है । अन्य बाह्य प्रपंच में सख मानने वाले को योग भक्ति किसप्रकार से हो सकती है ? भावार्थ--अपनी आत्मा में ही आत्मा को जोड़ने वाले साधु के निश्चय योग भक्ति होती है अन्य बाह्य प्रपंचों में लगे हुए के नहीं हो सकती है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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