SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुद्धपयोग अधिकार [ ४८३ भवन्ति, क्षायिकज्ञानयथाख्यातचारित्रमयत्वान्न दर्शनचारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वा विस्मयः, नित्योन्मीलितशुद्धज्ञानस्वरूपत्वाम्न निद्रा, आसालावेदनीय कर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च । तत्र परमब्रह्मणि नित्यं ब्रह्म भवतीति । तथा चोक्तममृताशोतौ- ( मालिनो ) "ज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति परिभवति न मृत्युर्नागतिर्नो गतिर्वा । तदतिविशदचित्त लभ्यतेऽङ गेऽपि तत्त्वं गुणगुरुगुरुपादाम्भोज सेवाप्रसादात् ||" मनुष्य, तिर्यञ्च और अचेतन कृत उपसर्ग भी नहीं हैं, क्षायिकज्ञान और वयाख्यानचारित्रमय होने से दर्शनमोह और चारित्रमोह के भेद से भिन्न ऐसे दोनों मोहनीय कर्म भी नहीं हैं, वाह्यप्रपंचों से विमुख होने से जहां पर विस्मय - आश्चर्य नहीं है, नित्य उन्मीलित- प्रगटरूप शुद्धज्ञान स्वरूप होने से जहां पर निद्रा भी नहीं है तथा असातावेदनीयकर्म का समूलनाश हो जाते से भुवा और तृषा भी नहीं हैं उसी परमब्रह्म स्वरूप में सदा ब्रा निर्वाण है । भावार्थ - जिस परमतत्त्व के अनुभव में ये इन्द्रियव्यापार, उपसर्ग आदि नहीं हैं उसी परमतत्त्व में आत्मा की तन्मयता हो जाना ही परमनिर्वाण है । इसीप्रकार से अमृताशीति ग्रंथ में भी कहा है " श्लोकार्थ -- 'जहां पर ज्वर, जन्म और जरा की वेदना भी नहीं है, मृत्यु भी तिरस्कार नहीं कर सकती है, तथा जहां पर गति और अगति भी नहीं है । उस परमतत्त्व को अतिनिर्मल चित्तवाले पुरुष शरीर में स्थित होते हुए भी गुणों में गुरु ऐसे गुरुदेव के पादकमल की सेवा के प्रसाद से प्राप्त कर लेते हैं ।' १. अमृताशीति श्लोक ५८ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy