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________________ [ ११३. शुद्धभाव पधिकार जो खइयभावठाणा, यो खयउवसमसहावठाणा वा । मोदइयभावठाणा, जो उवसमणे' सहावठाणा वा ॥४१॥ न क्षायिकभावस्थानानि न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि धा। मौरयिकभावस्थानानि नोपशमरावस्थामागि वा Fil कर्मों के क्षय से क्षायिक वह भाव भी नहीं। क्योंकि विशुद्ध नय से नहि कर्मबन्ध हो । क्षायोपशमिक भाव व प्रौदयिक भाव भी। उपशम स्वभाव जीव में होते न ये कभी ।।४।। । चतुर्णा विभावस्वभावानां स्वरूपकथनद्वारेण पंचमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । मणो क्षये मवः क्षायिकभाषः । कर्मणां क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिकभावः । कर्मणा ... -- - गाथा ४१ अन्यथार्थ –| क्षायिकभावस्थानानि न ] जीव के क्षायिकभाव स्थान नहीं है भयोपशमभावस्थानानि वा न ] क्षयोपशमभाव स्थान भी नहीं है [ प्रौदयिकभाषमानि न ] औदयिकभाव स्थान भी नहीं है [ वा उपशमभावस्थानानि न ] और खमभाव स्थान भी नहीं है । । टोका-चार बिभाव स्वभावों के स्वरूप के कथन द्वारा यह पंचमभाव के म का कथन है। _ कर्मों के क्षय होने पर हा भाव क्षायिकभाव है, कर्मों के क्षयोपशम के पर हुआ भाव क्षायोपशमिक भाव है, कर्मों के उदय के होने पर हुआ भाव प्रौदभाव है, कर्मों के उपशम के होने पर हुग्रा भाव प्रौपशमिकभाव है और संपूर्ण को उपाधि से रहित ऐसा जो परिणाम में हुआ भाव वह पारिणामिकभाव है । पांचों भावों में से प्रथम ही औपशमिकभाव दो प्रकार का है, क्षायिकभाव नौ १. उममगो ( क ) पाठान्तर ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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