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________________ 1 शुद्धभाव अधिकार ( मालिनी ) सुकृतमपि समस्त मोगिनां भोगमूलं त्यजतु परमतत्वाभ्यास निष्णातचितः । उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं भजतु भवदिमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः ।। ५६ ।। (५६) श्लोकार्थ - परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्त वाले मुनीश, योगीजनों के भोगों के मूल ऐसे संपूर्ण पुण्य को भी छोड़ें और भव से मुक्त होने के लिये सार तत्त्व स्वरूप उभय प्रकार के समयसार का आश्रय लेवें इसमें क्या दोष है ? [ tre भावार्थ - निज श्रात्म तत्व के अभ्यास में कुशल साधुओं को उपदेश दिया सेवा है कि आप समस्त पुण्य को भी छोड़ो और कारण समयसार रूप शुद्धोपयोग को आप करके कार्य समयसार रूप शुद्धोपयोग को प्राप्त करके कार्य समयसार रूप शुद्ध परमात्मा को प्राप्त करो। तुम्हारे लिये इसमें कोई दोष नहीं है किन्तु जो अभी परूप क्रिया से निवृत्त नहीं हुए हैं उनके लिए पुण्य क्रिया के छोड़ने का उपदेश नहीं है। " विशेषार्थ - उभय समयसार का अभिप्राय है कारण और कार्य समयसार । लिका स्वरूप समयसार ग्रन्थ में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है । तथाहि - "" अनंत सादि चतुष्टय लक्षण कार्यसमयसार का उत्पादक होने से निर्विकल्प समाधि परिणाम परिणत कारण समयसार लक्षण रूप भेदज्ञान से ज्ञानमय हो होता है ।" "" केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार का साधक निर्विकल्प समाधिजो कारण समयसार है ।' ..... ""भेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार मोक्षमार्गे संज्ञक जो व्यवहार कारण समयसार उससे साध्य जो निश्चय कारण समयसार है जो कि विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव १. समयसार गाथा १२७, टीका पृष्ठ १८४ । २. गाथा ३५५, टीका पृष्ठ ४३६ । १. गाथा ३७३ से ३८२ तक की टीका के अन्तर्गत पृष्ठ ४५६ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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