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________________ • ] ७० तथा चोक्त ं श्रीमदमृतचन्द्र सूरिभिः नियमसार ( वसंततिलका ) "अस्मिन्ननाविनि महत्यविवेकनाटये वर्णादिमान् नति पुद्गल एव नान्यः । रागाविपुल विकारविदा शुद्धचैतन्यषामयमृतिरयं च जीवः ॥ " इन छह भेदों के क्या नाम हैं बादर बादर चादर वादसुहुमं च सूक्ष्मस्थूलं च । सुहमं च सुमसुमं धरादियं होदि छ भेयं ||६०३॥ अर्थ- बादर बादर, बादर, बादर सूक्ष्म, सूक्ष्म बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म सूक्ष्म इसप्रकार पुद्गल द्रव्य के छह भेद हैं। जिनके उदाहरण उपर्युक्त पृथ्वी आदि हैं । विशेष बात यह है कि यहां नियमसार ग्रन्थ में अंतिम जो भेद सूक्ष्म सूक्ष्म है उसके उदाहरण में कर्म के प्रयोग्य पुद्गल स्कंधों को लिया है और गोमटसार tasis में परमाणु को लिया है । इसका कारण यह है कि प्रकृत ग्रन्थ नियमसार में स्कंध के छह भेद किये हैं इस कारण उसमें परमाणु को ले नहीं सकते हैं क्योंकि यहां परमाणु को अलग लेकर उसके भी दो भेद किये हैं और यहां पर सामान्यतया पुद्गल के ही छह भेद हैं परमाणु को अलग नहीं किया है अतएव वहां पर जीवकांड में उन्हीं छह भेदों के उदाहरण में परमाणु को भी ले लिया ऐसा समझना चाहिये । उसी प्रकार से ( पुद्गल को जानकर उससे अपने आपको पृथक् करने के लिये ) श्रीमान् अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं - — श्लोकार्थ – “ इस अनादिकालीन अविवेकरूपी नाट्यशाला में वर्णादिमान् पुद्गल ही नाच रहा है अन्य जीव नहीं नाच रहा है क्योंकि यह जीव रागादिरूप पौद्गलिक विकारों से विरुद्ध - विलक्षण, शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति स्वरूप हैं ।” १. समयसार कलश ४४ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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