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________________ ९० ] तथा हि नियमसार ( मालिनी ) समय निमिषकाष्ठा सत्कलानाडिकाद्याद् दिवसरजनिमेवाज्जायते काल एषः । ववहारो पुतिविहोतीदो वनगो भविस्सो दु । तदो संखेज्जावलि हद सिद्धाणं पमाणं तु ॥ ५७८ ।। गाथार्थ - व्यवहार काल के तीन भेद हैं- भूत, वर्तमान, भविष्यत् । इनमें से सिद्धराशि का संख्यानावलि के प्रमाण से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतना ही अतीत अर्थात् भूतकाल का प्रमाण है । भावार्थ - छह महिना प्राठ समय में छह सौ आठ जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं और सिद्ध राशि जीव राशि के अनन्तवें भाग है । यह सिद्ध राशि कितने काल में हुई इसके लिए त्रैराशिक फलराशि छह महीना व समय और इच्छाराशि सिद्धों के प्रमाण गुणा करके प्रमाण राशि छह सौ आठ का भाग देने पर अतीत काल का प्रमाण संख्यातावलि गुणित सिद्धराशि लब्ध प्राता है । वर्तमान और भविष्यत् काल का प्रमाण बताते हैं से समयो दु वट्टमाणो जीवादी सव्वपुग्गलादो वि । भावी प्रणंत गुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ।।५७६ ।। अर्थ - वर्तमान काल का प्रमाण एकसमय है । सम्पूर्ण जीवराशि तथा समस्त पुद्गलराशि से भी अनन्तगुणा भविष्यत् काल का प्रमाण है। इसप्रकार व्यवहार काल के तीन भेद हैं ! [ अब टीकाकार मुनिराज कालद्रव्य को जानकर शुद्ध ग्रात्म तत्त्व के अनुभव करने का उपदेश करते हुए श्लोक कहते हैं । ] ( ४७ ) श्लोकार्थ - समय, निमिष, कला और नाड़ी को श्रादि लेकर दिवस और रात्रि के भेद से यह काल ( व्यवहार काल ) उत्पन्न होता है । मुझे निज निरूपम
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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