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________________ T -२ ] नियमसार (मालिनी ) इति जिनपतिमार्गाद् बुद्धतत्वार्थजातः त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च । भजतु परमतत्वं चिचमत्कारमात्रं परविरहितमन्त निर्विकल्पे समाधी ||४३|| ( अनुष्टुभ् ) जीवश्चेतनश्चेति कल्पना । पुद्गलोऽचेतनो सापि प्राथमिकानां स्थान स्यान्निष्यन्नयोगिनाम् ॥ ४४ ॥ ( ४३ ) श्लोकार्थ- - इस प्रकार से जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग ( आगम ) से जान लिया है तत्त्वार्थ के समूह को जिसने ऐसे भव्य जीव सम्पूर्ण चेतन और अचेतन रूप परद्रव्य को छोड़ो तथा अन्तरंग निर्विकल्प समाधि में पर से विरहित चिच्चमत्कार मात्र परम तत्त्व का आश्रय देवो । - भावार्थ – ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट किया है कि निश्चयनय से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है और व्यवहारनय से स्कन्ध को भी पुद्गल द्रव्य कहा जाता है। यहां टीकाकार का कहना है कि जिनेन्द्र भगवान् के आगम से जीव प्रजीव आदि तत्त्वों को समझकर अपने से भिन्न सभी चेतन श्रचेतन द्रव्यों का सम्पर्क छोड़ो और वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर चिच्चैतन्य स्वरूप अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करो । ( ४४ ) श्लोकार्थ - पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है इसप्रकार की जो कल्पना है वह प्राथमिक शिष्यों को होती है किन्तु निष्पन्न योगियों को यह कल्पना नहीं होती है । भावार्थ - चौथे से छठे गुणस्थान तक जीव प्राथमिक शिष्य कहलाते हैं क्योंकि ये सविकल्प अवस्था में हैं और यहीं तक जीव चेतन है, पुद्गल अचेतन है ऐसी कल्पनायें होती हैं प्रागे निर्विकल्प ध्यान में यह विकल्प ही नहीं उठता है प्रतएव निर्वि कल्प ध्यानी योगी निष्पन्न योगी कहलाते हैं क्योंकि वे योग ध्यान के अभ्यास में निष्पन्न ( कुशल ) हो चुके है ग्रतः उनके ध्यान में ये कल्पनायें कैसे हो सकती हैं ?
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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