SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मायक २३० ] नियमसार मद्र क्रूर परिणामों से हुआ ध्यान रौद्रध्यान है, इसके भी चार भेद हैंहिंसा में आनन्द मानना हिंसानंदी, असत्य में आनन्द मानना मृषानंदी, चोरी में आगे मानना चौर्यानंदी और परिग्रह के संग्रह में आनन्द मानना परिग्रहानंदो ऐसे ध्यान हैं । धर्मयुक्त ध्यान धर्म्यध्यान है, इसके भी चार भेद हैं- सर्वज्ञप्रणीत आ को प्रमाण मानकर 'यह ऐसा ही है जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं होते हैं इस निश्चय करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है । सर्वज्ञ के मार्ग से त्रिमुख जीव सन्मार्ग से दूर होकर उन्मार्ग में भटक रहे कैसे ये सुपथगामी बनें ? उसप्रकार का चितन अपायवित्रय है । कर्मों के फलों का विचार करना विपाकविचन है । और लोक के स्वभाव, संस्थान द्वीप, नदी आदि के स्वरूप का विचार क संस्थान विचय है । जब तक इन विषयों में चिंतन धारा चलती है तब तक ये ज्ञान रूप हैं, जब उनमें चिंतन धारा एकाग्रचितानिरोधरूप से केन्द्रित हो जाती है तभी ये घ्या कहलाते हैं । निर्मल गुणरूप आत्मपरिणति में शुक्लध्यान होता है उसके भी चार भेद पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रिया निवृत्ति । इनमें से आदि के आर्तरोदध्यान संसार के ही कारण हैं। अंत के दो शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु हैं' । आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है परन्तु छठे निदान नहीं होता है । रौद्रध्यान पांचवें तक हो सकता है। धर्म्यध्यान चौथे से सा गुणस्थान तक है और प्रथम शुक्लध्यान आठवें से ग्यारहवें तक है, द्वितीय बारहवें है, ये दोनों शुक्लध्यान द्वादशांगपाठी 'श्रुतकेवली को ही होते हैं । अन्तिम दोनों शुक् ध्यान केवली के होते हैं । १. "परे मोक्षहेतु" ॥२६॥ तत्वा । २. 'शुक्ले चाग्रे पूर्वविदः ||३७|| तत्वा.
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy