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________________ 43... १०४ । नियमसार सपदि समयसारस्तस्य हृत्पुण्डरीके लसति निशितबुद्धः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।३।। इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्य वृत्तौ अजीवाधिकारो द्वितीयः श्रुतस्कंधः। (५३) श्लोकार्य-इसप्रकार ललित पदों को पंक्ति जिस भव्योत्तम के मुख कमल में सदा शोभती है उस तोक्ष्ण बुद्धिवाले पुरुष के हृदय कमल में शीघ्र ही समयसार स्वरूप शुद्ध प्रात्मा प्रकाशित होता है पुनः इसमें आश्चर्य हो क्या है ? भावार्थ-छह द्रव्यों का पठन-पाठन करनेवाले जीव आत्मा के शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं इस में कुछ भी आश्चर्य नहीं है। विशेष--द्वितीय अधिकार में ग्राचार्य महोदय ने गाथा २० से ३७वीं गाथा पर्यन्त अजीव द्रव्य का वर्णन किया है। इसमें सबसे प्रथम पुद्गल के अणु और स्कन्ध से दो भेद कहे हैं पुनः अशु के चार भेद किये हैं और स्कन्ध के छह भेद किये हैं तथा उन्हें उदाहरण देकर स्पष्ट समझाया है । परमाणु का बहुत ही सुन्दर वर्णन करते हुए पुद्गल द्रव्य में भो निश्चय, व्यवहारनयों की अपेक्षा घटित को है। अनन्तर संक्षेप में धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य का वर्णन करके पुनः काल द्रव्य का वर्णन विशदरूप से किया है । स्थल-स्थल पर टीकाकार ने निश्चय-व्यवहार नयों की अपेक्षा को खोलते हुये शुद्धात्म तत्त्व की भावना की ओर ही पाठकों को झुकाया है । टोकाकार ने अजीव तत्त्व को समझाकर उससे पृथक् होने के लिए बारंवार प्रेरणा दी है। तथा जगह २ साहित्य सौष्ठव से विद्वानों के मन को अनुरंजित करते हुए अध्यात्म के अानन्द रस का पान कराया है। आगे शुद्ध अधिकार में केवल शुद्ध प्रात्म तत्त्व की मुख्यता से जीव द्रव्य को कहेंगे। इसप्रकार से सुकविजन रूपी कमलों के लिए सूर्य के समान पंचेंद्रिय विषयों के प्रसार से रहित, गात्र मात्र परिग्रह धारी श्री पद्मप्रभमलधारी देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अजीवाधिकार नाम का द्वितीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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