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________________ नियमसार ( मंदाक्रांता) हित्वा भौतिं पशुजनकृतां लौकिकीमात्मवेदी शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकीम् । मुक्त्वा मोहे कनक रमणीगोचरं चात्मनात्मा स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः ।।२६५।। ( बसंततिलका) भोति विहाय पशुभिर्मनुजैः कृतां तं मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम् । आत्मप्रवादकुशल: परमात्मवेदी प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम् ॥२६६॥ णाणाजीवा णाणाकम्मं जाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवाद, सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥१५६॥ - .. .- . - -- - -- - - - ... .. - - (२६५) श्लोकार्थ-आत्मज्ञानी मुमुक्षु आत्मा अज्ञानी जनों द्वारा की गई लौकिक भीति को तथा घोर संसार की करने वाली, प्रशस्त और अप्रशस्तरूप वचन रचना को छोड़कर और कनक-कामिनी सम्बन्धी मोह को तजकर मुक्ति प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में ही आत्मा के द्वारा अविचल स्थिति को प्राप्त होता है । (२६६) श्लोकार्थ-आत्मप्रवाद नामक पूर्व में कुशल, परमात्म ज्ञानी पशु सदृश-अज्ञानी मन'या के द्वारा किये गए भय को छोड़कर तथा लौकिक जन में संबंधित उस सकल जल्प जाल को भी त्यागकर नित्य सुखदायी ऐसे एक निजतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। ___ भावार्थ-जो साधु परकृत निदा से क्षुब्ध नहीं होते हैं और संसारी जनों से संबंधित लौकिक प्रपंचों से सर्वथा दूर रहते हैं वे ही निर्विकल्प ध्यान के अधिकारी हो सकते हैं तथा वे ही आत्म तत्त्व को सिद्धि कर सकते हैं अन्य नहीं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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