SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है - शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार [ ३३५ केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु निखिलमोहरागढ़ षादिपरभावानां निवारणं च करोति । पुनरनबरत मखंडाद्वं तसुन्दरानन्दनिष्यन्द्यनुपमनिरंजन निजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन शुद्धनिश्वयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति । ( हरिणी ) वचनरचनां त्यक्त्वा भय्यः शुभाशुभलक्षणां सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगना सुखकारणम् ॥१६१ ॥ का तिरस्कार ही करते हैं किन्तु समस्त मोह रागद्वेषादि परभावों का भी त्याग कर देते हैं । पुनः निरन्तर अखण्ड अद्वैत सुन्दर आनन्द के निर्झररूप अनुपम निरंजन निज कारण परमात्मतत्त्व को नित्य ही शुद्धोपयोग के बद में सम्यक् प्रकार से अनुभव करते हैं, उनके नियम से शुद्ध निश्चयनियम होता है ऐसा सूत्रकार भगवान् श्री कुदेकुददेव का अभिप्राय है | भावार्थ- पहले गाया ३ में आचार्य देव ने रत्नत्रय को नियम शब्द से कहा था, वहां पर भी यही अभिप्राय है क्योंकि शुद्धनिश्वयन में परिणत हुए साधु के ही शुद्ध प्रायश्चित्तरूप निश्चय नियम होता है । | अव टीकाकार श्री मुनिराज अभेदरूप निधिकल्प ध्यान की प्रेरणा देते हुए चार श्लोक कहते हैं--] ( १६१ ) श्लोकार्थ - जो भव्य जोव शुभ-अशुभरूप वचन रचना को छोड़कर - नित्य ही स्फुटरूप से सहजपरमात्मा का सम्यक् प्रकार से अनुभव करता है, उस ज्ञान स्वरूप परम संयमी के नियम से यह शुद्ध नियम होता है, जो कि मुक्तिसुन्दरी के सुख का कारण है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy