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________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २५५ तथा हि (मंदाक्रांता) सम्यग्दृष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्तः । सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्च स्तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ।।१२७।। केवलणाणसहावो, केवलदंसरगसहाव सुहमइयो। केवलसत्तिसहावो, सो हं इदि चितए गाणी ॥६६॥ बाहर का कुछ भी भान नहीं रहता है अर्थात् आमा का उपयोग अपने स्वरूप में तन्मय हो जाता है ऐसी शुद्धोपयोग की अवस्था विशेएमा वीतराग निर्विकल्प ममाधिरूप ध्यान में ही यह प्रत्याख्यान घटित होता । उमीप्रकार से-- [टीकाकार श्री मुनिराज प्रन्या यान स्वरूप मुनिराज की वंदना करते हुए इनांक कहते हैं--] (१२७) श्लोकार्थ--जो सम्यग्दृष्टि मंपूर्ण कर्म और नोकर्म के समूह को छोड़ देता है, उस सम्यग्ज्ञान की मतिस्वरूप साधु के 'नश्चित ही प्रत्याख्यान होता है आंः उसके ही पापसमुह को नष्ट करने वाले ऐसे मम्यकनारित्र भी अतिशयम्प से होते हैं, ऐसे उन रत्नत्रय स्वम्प मुनिराज को मैं भव के परिभव निरस्कार स्वरूप क्लेग का नाश करने के लिये नित्य ही वंदन करता है । भावार्थ-यहां पर सम्यग्दृष्टि शब्द से बीताग चारित्र के साथ अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व से सहित निश्चय सम्यग्दष्टि को ग्रहण किया गया है, क्योंकि उसी के ही सामायिक आदि से यथाख्यात पर्यन्त सभी चारित्र हो सकते हैं ऐसे मुनिराज ही अपने तथा हमारे भव के पराभव से होने वाले दुःग्वों को नाश करने में समर्थ होते हैं, इसीलिए यहां उनको नमस्कार किया है। गाथा ६६ अन्वयार्थ-[केवलज्ञान स्वभावः] केवलज्ञान म्बभाव वाला, [ केवलदर्शन स्वभावः ] केवलदर्शन स्वभाव वाला, [ सुखमयः ] मुग्यस्वरूप और [ केवल शक्ति
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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