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________________ नियमसार ६२ ] तथाहि ( मालिनी ) अप नपयुगयुक्ति लंघयन्तो न संतः परमजिनपदाजद्वन्दुमचद्विरेफाः। मु पनि सारशारं रानुयन्ति क्षितिषु परमतोक्तः किं फलं सज्जनानाम् ॥३६॥ इति सुफविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपप्रभमल (३६) श्लोकार्थ-जो सत्पुरुष दोनों नयों की युक्ति का उल्लंघन न करके परम जिन भगवान् के चरण कमल युगल के मन भ्रमर हैं वे शीघ्र ही समयसार को निश्चित प्राप्त कर लेते हैं। इस पृथ्वी तल पर परमत के कथन से सज्जनों को क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है। विशेषार्थ-प्रारम्भ में मंगलाचरण के बाद गाथा २ में भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव ने यह कहा था कि मार्ग और मार्गफल ये दो बातें ही जिनेन्द्र भगवान् ने बतलाई हैं। यहां पर मोक्ष की प्राप्ति का उपाय तो मार्ग है और उसका फल निर्वाण प्राप्त कर लेना है। इसीलिये 'नियम' शब्द से अवश्य करने योग्य कार्य को लिया है और जो अवश्य करने योग्य है वह रत्नत्रय हो है। इस ग्रन्थ में भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मार्ग का ही कथन प्रधान और उसमें भी भेद रत्नत्रय में निष्णात जो मुनिराज हैं उनके लिये ही अभेद रत्नत्रय का उपदेश होता है । इस ग्रन्थ में भेद रत्नत्रय का वर्णन संक्षिप्त है और अभेद रत्नत्रय का वर्णन विशेष रूप से वरिणत है क्योंकि स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने 'मूलाचार' में मुनियों के २८ मूलगुण आदि रूप भेद रत्नत्रय का विस्तार से वर्णन किया हुआ है। इस प्रथम अधिकार में सर्वप्रथम भेद रत्नत्रय को वणित किया है। उसमें भी व्यवहार सम्यग्दर्शन के विषयभूत सच्चे प्राप्त, आगम और तत्त्वों का वर्णन किया है। प्राप्त और पागम का स्वरूप बताकर तत्त्वों के स्वरूप को बतलाते हुये छह द्रव्यों PR
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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