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________________ नियमसार व्यंजन पर्यायश्व पर्यावणमात्मबोधमन्तरेच पर्यायस्वभावाच्छुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा व्यवहारेण नशे जातः तस्य नराकारो नरपर्यायः । केवलेनाशुभकर्मणा यवहारेणात्मा नारको जातः तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः । किचिच्छुममिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो व्यवहारेणात्मा तस्याकारस्तिपर्यायः । केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेण भ्रात्मा वेवस्तस्याकारो देवपर्यायश्चेति । अस्य पर्यायस्य प्रपञ्चो ह्यागमान्तरे द्रष्टव्य इति । ४८ ] ( मालिनी ) श्रपि च बहुविभावे सत्ययं शुद्धदृष्टिः सहज परमतत्त्वाभ्यास निष्णातबुद्धिः । सपदि समयसाराज्ञान्यदस्तीति मत्वा सभवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ||२७|| व्यवहारनय से आत्मा देव हो जाता है उस देव के आकार को देव पर्याय कहते हैं । इन पर्यायों का विस्तार अन्य आगम ग्रन्थों में देखना चाहिये | विशेषार्थ - ग्रन्थकार ने गाथा में कर्मोपाधि सहित पर्याय को विभाव पर्याय एवं कर्मोपाधि रहित पर्याय को स्वभाव पर्याय कहा है। टीकाकार ने स्वभाव पर्याय के भी कारण शुद्ध पर्याय और कार्यशुद्धिपर्याय ऐसे दो भेद किये हैं । उसमें सिद्धपर्याय को कार्यशुद्धपर्याय और स्वाभाविक शुद्ध निश्चयनय से सिद्ध के सदृश श्रात्मा का जो शुद्धस्वरूप है उसमें तन्मय रूप जो शुद्धोपयोग की अवस्था है उस समय बाह्य संकल्प विकल्प से रहित जीव की परम पारिणामिक भाव रूप से जो परिणति होती है जहां पर ध्यान - ध्याता और ध्येय का विकल्प ही नहीं रह जाता है उस समय कारण शुद्ध पर्याय कहलाता है । यह पर्याय भी पूर्णतया बारहवें गुणस्थान में हो घटित होवेगी i और बुद्धि पूर्वक संकल्प विकल्प के न होने से सातवें । गुणस्थान की निर्विकल्प अवस्था से भी अंशात्मक रूप से मानी जा सकती है । [' अब टीकाकार विभाव पर्यायों के तत्त्व के अभ्यास-ध्यान की महिमा को बतलाते (२७) श्लोकार्थ - सहज परमतत्त्व के ऐसा भेद विज्ञानी यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव बहुत विद्यमान रहने पर सम्यग्दृष्टि के परमहुये श्लोक कहते हैं- ] अभ्यास में प्रवीण है प्रकार के विभावों के बुद्धि जिसकी होने पर भी
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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