SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . .. Here शुद्धमाव अधिकार [ १२१ चारों गति के भव में जो हो रहा भ्रमरण । ये रोग शोक वृद्धावस्था जनम मरण ॥ कुल योनि जीव के स्थान मागणाएँ भी। नहि शुद्धनय से होवें ये जीव में कभी ।।४२। - इह हि शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धजीवस्य समस्तसंसारविकारसमुदयो न समस्ती स । द्रव्यभावकमस्वीकाराभावाच्चतसृणां नारकतिर्यङ मनुष्यदेवत्वलक्षणानो गतीनां धमणं न भवति । नित्यशुद्धचिदानन्दरूपस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य द्रव्यभाषकर्मउपयोम्यविभावपरिणतेरभावान्न जातिजरामरणरोगशोकाश्च । चतुर्गतिजोवानां कुललिविकल्प इह नास्ति इत्युच्यते । तद्यथा-पृथ्योकायिकजीवानां द्वाविंशतिलक्षकोटिमानि, अप्कायिकजीवानां सप्तलक्षफोटिकुलानि, तेजस्कायिफजीवानां पिलक्षकोटिमानि, घायुकायिकजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, वनस्पतिकायिकजीवानाम् अष्टोचरलिहिलक्षकोटिकुलानि, द्वीन्द्रियजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि. श्रीन्द्रियजीवानाम् प्रष्ट कोटिकुलानि, चतुरिन्द्रियजीवानां नवलक्षकोटिकुलानि, पंचेन्द्रियेषु जलचराणां सार्द्धतलकोटिकुलानि, पाकाशचरजीवानां द्वादशलक्षकोटिकुलानि, चतुष्पदजीवानां सिमकोटिकुलानि, सरीसृपाणां नवलक्षकोटिकुलानि, नारकाणां पंचविंशतिलसकोटि टोका-शुद्धनिश्चयनय से शुद्धजीव के समस्त संसार के विकारों का समूह है ऐसा यहां पर कहा है । । द्रव्यकर्म तथा भावकर्म के स्वीकार करने का अभाव होने से नारक, तिर्यच, पद और देवत्व लक्षणवाली चार प्रकार की गतियों का परिभ्रमण नहीं होता है। स, शुद्ध चिदानन्दमय कारण परमात्मा स्वरूप जीव के द्रव्यकर्म, भात्र कर्म के ग्रहण विभाव परिणति का अभाव होने से जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक नहीं है । पति वाले जीवों के कुल योनि के भेद नहीं हैं ऐसा यहां पर कहा गया है । का स्पष्टीकरण पृथ्वीकायिक जीवों के २२ लाख करोड़ कुल हैं, जलकायिक जीवों के ७ लाख कुल हैं, बनस्पतिकायिक जीवों के २८ लाख करोड़ कुल हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy