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________________ एवं सम्वे पापा बबहारणयं पहुन्च मजिदा हु। मध्ये सिडसहापा सुरणया संसिदी जीवा ॥ ४९ ॥ जैसे सिखात्मा है वैसे भव में रहने वाले संसारी जीव है पोर इसी कारण से वे जरा, मरण पोर जन्म से रहित है तथा पाठ गुणों से भसंकृत हैं। . जिसप्रकार के प्रशरोरी, अविनाशी, मतींद्रिय, निर्मल, मिणुदात्मा, मिद्धलोक के ग्रभाग पर स्थित है वैसे ही जीव संसार में हैं ऐसा जानना । पुनः तत्क्षरण ही नविवक्षा को स्पष्ट कर दिया है पूर्वोक्त सभी भाव (स्थिति, मनुभाग, बंध, म्यान धादि) व्यवहारनय का माश्रय करके कहे गये हैं । किन्तु शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्धस्वभाव वाले हैं। यहां पर पाचायंदेव का अभिप्राय व्यवहारना से प्रसत्य का नहीं है। अन्यथा वे व्यवहार-निश्चय, दर्शन, ज्ञान, चारित्र के द्वारा मामा को शुद-सिद्ध बनाने का उपाय क्यों प्रदशित करते: वे का सकते थे कि "वास्तव में मार्ग का फल निर्वाण है पोर मागं जो मोष्ट का उपाय है वह असत्य है।" क्योंकि मोक्ष का उपाय तो व्यवहारनय के प्राश्रित ही है । किन्तु ऐसा न कह कर व्यवहार का उपदेश दिया है। प्रागे पुन: चतुर्थ अधिकार में पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का कथन किया है । माचार्य कुदकुददेव ने महाग्रत मार समिति में निश्वयनम को न घटाकर गुरिस्त में भयभ्य घटाया है । पुन: पंचपरमेश्री का समण बताकर मन्तिम गाया में कहा है-- परिसय भाषणाए चवहारणयस्स होदि चारिस । णिज्यणयल्स चरणं एतो उड़द पवरपामि ।।६।। ग पूर्वोत. भावना में (गाया ७५ तक की भावना में) ग्यबहारनय के अभिप्राय से पारित होता है, पर इसके घरगे निम्पयनय के चारित्र को कागा। । इसके मागे पाच अधिकार से लेकर ग्यारह अधिकार तक निश्चय प्रति क्रमाग, निश्चय प्रत्यास्यान, निश्चय पालानना, शुद्ध विनय प्रायश्चित, परमसमाति, परमनि. पोर निरचय परम पावश्यक इन सातों ना वर्णन किया जो कि ध्यान के माश्रित हो है। माग ग्यारहवें पधिकार के अन्त में कहा है सवे पुराणपुरिसा एवं आराममं य काऊण । मपमत्तपठिाणं परिवज्जप फेवली जादा ।।१५।।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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