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नियममार
ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिनः परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिणः परित्यक्तबाह्याभ्यन्तरचतुर्विशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणास्मफभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति ।
( मालिनी) मुकधिजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्त ललितपदनिकानिमितं शास्त्रमेतत् । निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०८।।
-. -... - द्वान रचित है, एंसे इस शास्त्र को जो निश्चित रूप से निश्चय और व्यवहार नथ के अविगेत्र से जानते हैं, वे समस्त अध्यात्म शास्त्र के रहस्य को जानने वाले, 'परमानन्द वीतराग सुख के अभिलाषी, बाह्य--अभ्यन्तर ऐसे चौबीस प्रकार के परिग्रह म्प प्रपंच के परित्यागी, कालिक उपाधि रहित स्वरूप में लीन हए निजकारण परमात्मा के स्वरूप के श्रद्धान ज्ञान और अनुष्ठान स्वरूप ऐसे भेदोपचार कल्पना से निरपेक्ष, स्वस्थ, रत्नत्रय में तत्पर होते हुए महापुरुष निश्चित E से गब्दब्रह्म के फलस्वरूप शास्वत सुग्व के भोक्ता हो जाते हैं ।
| अब टीकाकार मुनिराज इस भागवन् स्वरूप नियनसार ग्रंथ की तात्पर्यहै वृत्ति टीका को पूर्ण करते हुए चार कलश काव्यों के द्वारा ग्रंथ के माहात्म्य को तथा | शुभ कामना को व्यक्त कर रहे हैं । ]
(३०८) श्लोकार्थ---सुफविजनरूपी कमलों को आनन्दित करने में सूर्य | स्वरूप ऐसे पद्मप्रभ मलधारि देव ने ललित पदसमहों से इस प्रशस्त शास्त्र को बनाया है । जो विशृद्ध आत्मा के आकांक्षी जीव इसको अपने हृदय में धारण करते हैं वे परम लक्ष्मीरूपी कामिनी के प्रियकांत हो जाते हैं।