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निममगार
( वसंततिलका) कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधHशुक्लध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ । तारयां मिहीननुमको बीहरभकोऽयं
पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये ॥२६०।। कि च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते
( अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम् । सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१॥
- - - - बहिरान्मा हैं । छठे गुणस्थानवर्ती साधु निश्चय धर्मध्यान की भावना से सहित हैं तथा चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती व्यवहार धर्मध्यान से परिणत हैं अतएव वे बहिरात्मा नहीं हैं, वे यहां गौण हैं।
[ अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को दो कला काव्य द्वारा कहते हैं- ]
(२६०) श्लोकार्थ-कोई मुनि सतत निर्मल धर्म और शुक्लध्यानामतरूपी समरस में वर्तते हैं वे सचमुच में अंतरात्मा हैं। तथा इन दो ध्यानों से रहित मुनि बहिरात्मा हैं । मैं पूर्व कथित (अन्तरात्मा) योगी की शरण को प्राप्त होता हूं।
अब केवल शुद्ध निश्चयनय का स्वरूप कहा जाता है
(२६१) श्लोकार्थ-बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐना यह विकल्प कूद्धियों को होता है किंतु संसाररूपी रमणी के लिये प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियों को नहीं होता है।
भावार्थ-यहां केवल मात्र शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से ही यह कथन है क्योंकि "सवे सुद्धा हु सुद्धणया" शुद्धनिश्चयनय से सभी जीव सर्वथा शुद्ध ही हैं । संसार और मोक्ष की वहां बात ही नहीं है। क्योंकि जब सभी संसारी जीव भी सिद्ध सदृश पूर्णतया शुद्ध ही हैं तब संसार क्या होगा? किंतु जब व्यवहारनय से भेद करके